शिक्षा के अधिकार की प्राथमिकताएं क्या हों?
Date:01-02-18 To Download Click Here.
2002 में संविधान के 86वें संशोधन में अनुच्छेद 21-ए को शामिल किए जाने के साथ ही 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा एक मौलिक अधिकार बन गया। इस अधिकार के पीछे कानून की शक्ति थी। परन्तु इसे लागू करने वाला कानून 8 साल बाद 2010 में लाया गया। यह कानून राइट ऑफ चिल्ड्रन टू फ्री एण्ड कंपलसरी एजुकेशन अधिनियम (RTE) के रूप में प्रभावशाली बना।
विश्व के अनेक देशों ने शिक्षा के स्तर को अच्छा बनाने के लिए इस प्रकार के कानूनों का सहारा लिया है। हमारे देश के लिए भी निःसंदेह यह एक प्रशंसनीय कदम था। परन्तु विडंबना यह है कि अधिनियम में दिए गए अनेक प्रावधानों को शायद ठीक से देखा और समझा ही नहीं गया है। उन्हें अमल में लाना तो बहुत दूर की बात है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में अनेक कमियां चली आ रही हैं, जिन्हें अगर तीन स्तर पर सुधारा जाए, तो बाजी ही पलट सकती है। निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्यों को लेनी होगी। इस यज्ञ में शिक्षा विभाग में कार्यरत नौकरशाही को अपनी भूमिका भलीभांति निभाने की जरूरत है।
- विद्यार्थियों को स्कूल में बनाए रखना एक चुनौती है
अधिनियम में इस बात की परिकल्पना की गई है कि राज्य सरकारें और उनके अधीन ग्राम पंचायतें बच्चों का अधिक से अधिक पंजीकरण कराने का प्रयत्न करें। और उन्हें स्कूल छोड़ने न दें।कानून बनने के सात वर्षों के बाद भी बच्चे वहीं के वहीं हैं। अब समस्या पंजीकरण की कम और स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की ज्यादा है। ये बच्चे खेतों या घरों में काम करने या यूं ही मौज-मस्ती के लिए स्कूल छोड़ देते हैं।
सरकार को ऐसे स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के प्रति अपनी रणनीति बदलने की आवश्यकता है। जैसे लड़कियाँ अलग प्रसाधान के अभाव में स्कूल छोड़ देती थीं। वर्तमान सरकार ने इस समस्या से निपटने का प्रयत्न किया है। इसी प्रकार दिव्यांग, अनाथ एवं एकल अभिभावक वाले परिवारों के बच्चे ऐसे हैं, जिनके लिए स्कूल तक पहुँचना बहुत कठिन हो जाता है। इन बच्चों की समस्याओं को स्थानीय आधार पर निपटाया जाना चाहिए।
- शिष्य–शिक्षक अनुपात
यूनीफाइड डिस्ट्रिक इन्फार्मेंशन सिस्टम फॉरएजुकेशन (U-DISE) 2015-16 के डाटाबेस के अनुसार देश के 33 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं है। इस प्रकार, शिष्य-शिक्षक अनुपात में कमी को हम लक्ष्यद्वीप में 100 प्रतिशत से लेकर बिहार में 16.6 प्रतिशत तक देख सकते हैं।
कोई भी विकसित देश व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित स्टाफ के बगैर अपनी शिक्षा व्यवस्था को मजबूत नहीं कर सका है। प्रत्येक स्कूल में कम से कम दो शिक्षकों की जरूरत होती है, जिससे कि एक शिक्षक को समय पड़ने पर अवकाश या प्रशिक्षण के लिए भेजा जा सके।
राज्यों के पास शिक्षकों की नियुक्ति के लिए धन की समस्या होती है। अधिकांश राज्यों में स्कूलों में बच्चों की संख्या के अनुसार शिक्षकों की संख्या तथा उनकी स्थिति आदि पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।
- विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता
किसी क्षेत्र की सांस्कृतिक भिन्नताओं के कारण वहाँ शिक्षा सत्र का निर्धारण करने का अधिकार ग्राम पंचायतों को दिया जाना चाहिए। क्षेत्र में फसल कटने का समय, त्योहारों का समय या आपदाएं अलग-अलग होती हैं। इनका गहरा प्रभाव स्कूलों के बच्चों पर भी पड़ता है। अगर जिला स्तर पर इन बातों को देखते हुए शिक्षा सत्र चलाया जाए, तो उपस्थिति में वृद्धि हो सकती है।
किसी भी कानून का अच्छा या बुरा होना उसके कार्यान्वयन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। शिक्षा के अधिकार के कानून के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। अगर बच्चों को अपने मस्तिष्क में रखकर, कानून के प्रावधानों को अमल में लाया जाए, तो इस अधिकार से कोई भी बच्चा वंचित नहीं रहेगा।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित मनिंदर कौर द्विवेदी के लेख पर आधारित।