शंघाई सहयोग संगठन

Afeias
23 Jun 2017
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Date:23-06-17

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हाल ही में कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान को इसकी सदस्यता दी गई है। गौरतलब है कि रूस ने इस संगठन में भारत को सदस्यता देने की पुरजोर वकालत की थी। चीन के प्रभुत्व वाले इस सुरक्षा समूह में यह पहला विस्तार किया गया है।

शंघाई सहयोग संगठन

इसका गठन 2001 में रूस, चीन, किर्गिज गणराज्य, कजा किस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के राष्ट्रपतियों ने शंघाई शिखर सम्मेलन में किया था। यह संगठन आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी तथा साइबर सुरक्षा के खतरों आदि पर महत्वपूर्ण जानकारी साझा करके आतंकवाद विरोधी और सैन्य अभ्यास मंे संयुक्त भूमिका निभाने का मंतव्य रखता है। अब यह संगठन विश्व की 40 प्रतिशत आबादी और जीडीपी के करीब 20 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करेगा।

भारत के लिए इसका महत्व

संगठन में सदस्यता मिलना भारत के लिए ‘ऐतिहासिक मोड’ साबित हो सकता है। चूंकि संगठन आतंकवाद-विरोधी है, इसलिए भारत को आतंकवाद से निपटने के लिए समन्वित कार्यवाही पर जोर देने तथा क्षेत्र में सुरक्षा एवं रक्षा से जुड़े विषयों पर व्यापक रूप से अपनी बात रखने में आसानी होगी।आज आतंकवाद मानवाधिकारों का सबसे बड़ा दुश्मन है। शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य आतंकवाद को वित्तीय सहायता देने या आतंकवादियों के प्रशिक्षण से निपटने के लिए समन्वित प्रयास करने में सफल हो सकते हैं। ऐसे में आतंकवाद, अलगाववाद और कट्टरता से संघर्ष को लेकर यह संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

इस संगठन के अधिकांश देशों में तेल और प्राकृतिक गैस के प्रचुर भंडार हैं। इससे भारत को मध्य-एशिया में प्रमुख गैस एवं तेल अन्वेषण परियोजनाओं तक व्यापक पहुंच मिल सकेगी। यह संगठन पूरे क्षेत्र की समृद्धि के लिए जलवायु परिवर्तन, शिक्षा, कृषि, ऊर्जा और विकास की समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित कर सकता है। इससे भारत को भी लाभ होगा।

आशंकाएं

भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे को लेकर होने वाला तनाव इस संगठन की आतंकवाद-विरोधी प्रणाली के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। यह तो तय है कि भारत और पाकिस्तान के इस संगठन में जुड़ने से नए राजनीतिक आयाम तो जुड़ेंगे। चूंकि संगठन में द्विपक्षीय मामलों को उठाए जाने पर प्रतिबंध है, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि भारत-पाकिस्तान के बीच भी क्षेत्रीय शत्रुता के बजाय परस्पर सहयोग के नए तरीके आजमाए जाएंगे।संभावना है कि उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान के साथ संपर्क स्थापित करके भारत, चाबहार परियोजना के माध्यम से बुनियादी ढांचों की अपनी योजना को यूरेशिया तक पहुंचा सकेगा। लेकिन चीन के रहते ऐसा संभव होना मुश्किल लगता है।

अभी तक सार्क और आर्थिक सहयोग संगठन में पाकिस्तान की भूमिका नकारात्मक रही है। प्रश्न उठता है कि फिर पाकिस्तान को इसकी सदस्यता क्यों दी गई? आशंका जताई जा सकती है कि यह एक चीनी षड़यंत्र है, जिस पर रूस ने अपनी मुहर लगाई है। दरअसल, पाकिस्तान में चीन के सामरिक और आर्थिक हित निहित हैं, जिसे चीन के पाकिस्तान में निवेश, आर्थिक गलियारे और ग्वाद बंदरगाह के साथ एक अन्य सैन्य बंदरगाह की योजना के रुप में देखा जा सकता है। यही नहीं, चीन-पाकिस्तान के सहयोग से ही स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स, सीपेक एवं न्यू मेरीटाइन सिल्क रुट के जरिए भारत को घेरने की रणनीति बना रहा है।

फिलहाल, इस संगठन के बारे में अधिक आशंकाएं जताना अति प्रतिक्रिया माना जा सकता है। फिर भी इस संदर्भ में भारत को कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। पहला तो यह कि यह संगठन नाटो जैसा ही है। यानी भारत एक सैन्य संगठन का हिस्सा बन रहा है, जो उसकी गुटनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध है। दूसरे, जो देश लगातार भारत की सीमा व आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं, उनके प्रति भारत को मर्यादा, मित्रता एवं नैतिकता का प्रदर्शन करना होगा। जिस पाकिस्तान के साथ वह द्विपक्षीय वार्ता करने को भी तैयार नहीं होता, उसके साथ अब उसे बहुपक्षीय वार्ताएं करनी होंगी। इन विरोधाभासों से जूझना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों पर आधारित।

 

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