विधायिका के विशेषाधिकार
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हाल ही में कर्नाटक विधानसभा ने दो पत्रकारों को विधानसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करने के अपराध में जेल भेज दिया। इन पत्रकारों ने कुछ विधायकों के विरूद्ध लेख लिखे थे। इस मामले से यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है कि विधायिका को विशेषाधिकार दिए जाने का दायरा क्या है?इस प्रकार के विशेषाधिकार की शुरूआत इंग्लैण्ड में हुई। वहाँ राजतंत्र के प्रभाव से बचाने के लिए संसद को यह अधिकार दिए गए थे। इससे वहाँ के सांसदों को संसद में खुलकर बोलने और मत का अधिकार मिल गया।
हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 105 में संसद एवं अनुच्छेद 194 में राज्यों की विधानसभाओं को दी जाने वाली शक्तियों एवं अधिकारों का उल्लेख है।संक्षिप्त में, यह संविधान के अन्य प्रावधानों के लिए खुलकर बोलने की स्वतंत्रता देता है?
- संसद में दिए गए सभी व्याख्यानों एवं मतों को कानून के दायरे से बाहर करता है।
- संसद एवं विधानसभाओं को अपने विशेषाधिकारों को कोडीफाई (संहिताबद्ध) करने की स्वीकृति देता है। इस प्रकार 1950 तक ब्रिटिश संसद के पास होने वाले विशेषाधिकार ही भारतीय संसद को दे दिए गए। अभी तक संसद एवं विधानसभाओं ने अपने विशेषाधिकारों को कोडीफाई करने के लिए कोई कानून पारित नहीं किया है।
अनेक मौकों पर विशेषाधिकार की शक्ति का प्रयोग पत्रकारों के विरूद्ध किया गया है। इस प्रकार के शक्ति-प्रयोगों को देखते हुए ऐसा लगता है कि हमारी विधायिका के विशेषाधिकारों पर विचार करने की आवश्यकता है। हमारे सांसदों, विधायकों एवं सदन की रक्षा के लिए किस प्रकार के विशेषाधिकार होने चाहिए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों के साथ इनका तालमेल कैसे बैठ सकता है? विधानसभा एवं संसद सदस्यों को बिना किसी कानूनी भय के बोलने एवं मत देने की स्वतंत्रता मिलनी आवश्यक है। तभी वे अपना काम निर्भीक होकर कर सकेंगे। परन्तु क्या विधायिका के किसी सदस्य के आचरण तक के लिए विशेषाधिकार दिया जाना उचित है?
ऐसा लगता है कि इस विशेषाधिकार की सीमा केवल विधान मंडल, विधान सभा या संसद की प्रक्रियाओं तक ही सीमित करनी चाहिए। अगर इसके किसी सदस्य पर किसी रूप में ऊँगली उठाई जाती है, तो उसे अन्य नागरिकों की तरह न्यायालय के जरिए ही न्याय लेना चाहिए।
- क्या हमारी विधायिका को किसी व्यक्ति को जेल भेजने का अधिकार है? अगर ब्रिटिश संसद के परिपेक्ष्य में देखें, तो उसके पास 1880 से यह अधिकार है, जिसका इस्तेमाल कभी नहीं किया गया।
- तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि ये विशेषाधिकार हैं क्या? कोड़ के अभाव में किसी व्यक्ति के किसी काम को कैसे बताया जाए कि यह विशेषाधिकार के विरूद्ध है या नहीं? इसी कारण इन्हें कोडीफाई करना अत्यन्त आवश्यक है।
इस संबंध में आस्ट्रेलिया की संसद ने 1987 में पार्लियामेंटरी प्रिविलेजस एक्ट पारित किया था। इस अधिनियम में दंड का भी प्रावधान रखा गया। 1999 में ब्रिटिश संसद की संयुक्त समिति ने कोडीफिकेशन का प्रस्ताव किया था, परन्तु 2013 की एक समिति ने इसे गिरा दिया।हमारे संविधान निर्माताओं ने विशेषाधिकारों के कोडीफिकेशन का उल्लेख किया है। संविधान सभा में डॉ०राजेन्द्र प्रसाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘जब तक संसद इस पर कानून नहीं बनाती है, तब तक यह अस्थायी रहेगा।’
संसद ने कोडीफिकेशन के प्रयास किए भी हैं। 2008 में लोकसभा विशेषाधिकार समिति ने कोडिफिकेशन को गैर-जरूरी बताया था। यह ध्यान देने योग्य है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी सदन ने अपने विशेषाधिकारों के तहत पाँच बार ही दंड विधान किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि इस पर विशेषाधिकारों के दुरूपयोग के आक्षेप केवल इसकी कार्यप्रणाली को समझने में गलतफहमी के कारण लगाए गए हैं।कुल-मिलाकर न्यायालयों को अपने पूर्व फैसलों की जाँच-पड़ताल करके नागरिकों के मौलिक अधिकारों एव व्यवस्थापिका के विशेषाधिकारों में संतुलन बनाकर चलना चाहिए।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एम.आर.माधवन के लेख पर आधारित।