वापस बुलाने का अधिकार (Right to Recall)
To Download Click Here.
प्राचीन एथेन्सवासियों ने एक अनोखे प्रकार के प्रजातंत्र को सामाजिक रीति के रूप में अपना रखा था। प्रत्येक वर्ष की एक निश्चित तिथि पर वे निष्कासन प्रक्रिया का आयोजन करते थे। इस अवसर पर सभी नागरिकों को किसी मृदा पात्र पर निष्कासन योग्य व्यक्ति का नाम लिखना होता था। जिस व्यक्ति के नाम के सबसे ज़्यादा पात्र मिलते थे, उसे 10 माह के लिए शहर से निष्कासित कर दिया जाता था। हालांकि इस प्रक्रिया में बहुत सी कमियां रही होंगी। लेकिन आज के संदर्भ में अगर हम इस प्रकार की किसी प्रक्रिया को लागू करने की सोचें, तो इससे भ्रष्ट और तानाशाह प्रवत्ति के लोगों पर लगाम कसी जा सकती है।
वर्तमान में ऐसी प्रक्रिया कुछ देशों में चल रही है, जिसे ‘राइट टू रिकॉल‘ (Right to Recall) का नाम दिया गया है। इस प्रक्रिया में मतदाताओं को किसी प्रतिनिधि को उसके कार्यकाल से पहले ही निष्कासित करने का अधिकार होता है। सन् 1995 से ब्रिटिश कोलंबिया और कनाडा विधानसभाओं ने मतदाताओं को ऐसा अधिकार दे रखा है। अमेरिका के जार्जिया, अलास्का, कैन्सास आदि राज्यों में भी ऐसी व्यवस्था है। वाशिंगटन और रोड द्वीपों में ऐसी प्रक्रिया का संचालन किसी प्रतिनिधि के बुरे आचरण या अपराध में लिप्त होने पर किया जाता है।
- भारतीय संदर्भ में राइट टू रिकॉल
भारतीय संदर्भ में यह कोई नई बात नहीं है। यहाँ तो सदियों से राजधर्म की परंपरा चली आ रही है। वैदिक काल से ही किसी राजा के प्रशासन को सुचारू रूप से न चला पाने की स्थिति में उसे हटा दिया जाता था। सन् 1944 में मानवाधिकारी एम. एन. रॉय ने विकेंद्रीकृत और हस्तांतरण योग्य ऐसी सरकार का प्रस्ताव रखा था, जिसमें प्रतिनिधियों के चुनाव और निष्कासन दोनों का ही प्रावधान हो। सन् 1974 में जयप्रकाश नारायण ने भी इस फार्मूले की वकालत की थी। छत्तीसगढ़ राज्य के नगर पालिका अधिनियम के भाग 47 में किसी प्रतिनिधि के कसौटी पर खरे न उतरने की स्थिति में उसके निष्कासन हेतू चुनाव कराने का प्रावधान है। ऐसा प्रावधान मध्यप्रदेश और बिहार के स्थानीय निकायों में भी मिलता है।लगभग एक दशक पूर्व लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने प्रतिनिधियों को उत्तरदायी बनाने हेतू ‘राइट टू रिकॉल‘ शुरू करने की बात कही थी। 2011 में गुजरात राज्य के चुनाव आयोग ने भी स्थानीय निकायों के लिए ऐसी प्रथा शुरू करने का प्रस्ताव रखा था।हमारे जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में किसी प्रकार के आपराधिक कृत्य में लिप्त होने पर पदमुक्त किए जाने का प्रावधान है। परंतु इसमें प्रतिनिधियों के बुरे प्रदर्शन या निर्वाचक वर्ग के असंतुष्ट होने पर उसे पदमुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं है। इस प्रकार के कानून को लाने से पहले अनेक प्रकार की सावधानियाँ बरतना जरूरी है। इस कानून के दुरूपयोग का एक उदाहरण 2003 में कैलीफोर्निया के गवर्नर को रिकॉल वोट से हटाए जाने का मिलता है।
- कुछ सावधानियां
‘राइट टू रिकॉल‘ को शुरू करने से पहले लोकसभा और संबंधित विधानसभाओं में प्रतिनिधियों के विरोध में रिकॉल याचिका की शुरूआत की जानी चाहिए। यह प्रक्रिया अपने आप में उत्कृष्ट आदर्श से प्रेरित है। यह कहीं किसी प्रतिनिधि के विरोध में महज षड्यंत्र चलाने का कारण न बन जाए, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए रिकॉल याचिका और इलेक्ट्रॉनिक-मत का भी इंतजाम करना होगा।
दूसरे, इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि रिकॉल मत के लिए मतदाताओं की अभीष्ट संख्या हो। इसमें जनादेश ही प्रधान भूमिका हो।तीसरे, प्रक्रिया में पारदर्शिता और स्वतंत्रता लाने के लिए चुनाव आयोग कुछ अधिकारियों की नियुक्ति करे, जो संपूर्ण प्रक्रिया का निरीक्षण और कार्यान्वयन करें।‘राइट टू रिकॉल‘ से जनता के प्रति प्रतिनिधियों को सीधे तौर पर उत्तरदायी होना पड़ेगा। इससे भ्रष्टाचार तो खत्म होगा ही, साथ ही राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण पर भी रोक लगेगी। राजनीतिज्ञों की जवाबदेही की नींव पर टिका प्रजातंत्र का भवन मजबूत बनेगा।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित वरूण फिरोज गांधी के लेख पर आधारित।