राष्ट्रवादी राजनीति से आहत भूमंडलीकरण

Afeias
28 Dec 2017
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Date:28-12-17

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भूमंडलीकरण के बदलते दौर में आज यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है कि आखिर व्यापार के बहुपक्षीय स्वरूप की दिशा किस ओर जा रही है? विशुद्ध रूप में भूमंडलीकरण व्यापार के ऐसे स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें वस्तु और पूंजी के साथ-साथ श्रमिकों को भी अन्य देशों में मुक्त आवाजादी की छूट मिल जाती है। इसे दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।

  • देशों की सीमाओं से परे, पहले से अधिक आर्थिक स्वतंत्रता
  • श्रम की अपेक्षा पूंजी एवं माल की मुक्त आवाजाही।

आर्थिक इतिहासकारों का मानना है कि भूमंडलीकरण का पहला दौर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चला। पिछले चार दशकों से इसका द्वितीय दौर चल रहा है। प्रथम दौर में चीन और भारत की स्थिति काफी खराब रही थी। दोनों ही देशों की ऊपर के 45 देशों में भी गिनती नहीं थी। परन्तु द्वितीय दौर में दोनों देशों ने अपना स्थान ऊपर उठा लिया है। सन् 2016 में अमेरिका के बाद चीन का दूसरा एवं भारत का सातवां स्थान रहा है। इस दौरान भारत का सकल घरलू उत्पाद इटली और कनाड़ा से ऊपर रहा एवं ब्रिटेन और फ्रांस से थोड़ा ही पीछे रहा है।

चीन और भारत ने भूमंडलीकरण का विरोध नहीं किया, परन्तु पश्चिमी देश विरोध करते दिखाई दे रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने ‘अमेरिका, अमेरिकियों के लिए’ की नीति के प्रति कठोर रुख अपना रखा है। भूमंडलीकरण का विरोध करते हुए उन्होंने विश्व व्यापार संगठन से भी हाथ खींचना शुरू कर दिया है। साथ ही उन्होंने अमेरिकी कंपनियों को भी अमेरिका में ही निवेश बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई है। अमेरिका के अलावा यूरोप में जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली भी पीछे हटने लगे हैं।

भूमंडलीकरण से इन देशों के पीछे हटने का कारण आर्थिक नहीं है। नई राजनैतिक सत्ताओं ने अपने हित में ऐसा कदम उठाना शुरू किया है। लगभग चार दशकों तक आर्थिक नीतियों ने राजनीति पर राज किया था। लेकिन अब स्थिति पलट गई है, जो उदारवादियों के लिए चिंता का विषय है।1990 में भूमंडलीकरण के चरम दौर के समय ही दो तरह की चर्चाएं सामने आई थीं, जिन पर गौर किया जाना चाहिए।

  • 1998 में जगदीश भगवती ने माल के मुक्त व्यापार का समर्थन करते हुए पूंजी की मुक्त आवाजाही का विरोध किया था। उनका मानना था कि माल-बाजार की अपेक्षा पूंजी-बाजार में अक्सर अस्थिरता बनी रहती है। 1996 में एशिया के मलेशिया, थाईलैण्ड, फिलीपींस आदि कुछ देशों में यह देखा भी गया। इन देशों में पूंजी की आवक 93 अरब डॉलर रही, परन्तु बर्हिवाह मात्र 12 अरब डॉलर ही रहा। इससे पूर्वी एशिया में आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया था। माल व्यापार में कभी इतनी ऊँच-नीच नहीं आती है।
  • तुर्की के जाने माने अर्थशास्त्री डेनी रोड्रिक ने मुक्त व्यापार के संबंध में कहा था कि आर्थिक उदारवाद के कारण हानि उठाने वाले हमेशा के लिए डूब जाएंगे। ये दोनों ही आशंकायें भूमंडलीकरण को रोकने में विफल रहीं।

वर्तमान में दो तरह की राजनीतिक प्रवृत्तियां सामने आ रही हैं, जो भूमंडलीकरण की दिशा को प्रभावित कर रही हैं।

  • ऐसा दावा किया जा रहा है कि बाजारों के वैश्विक स्वरूप एवं किसी देश की संप्रभुता के दायरे में भारी असंतुलन है। जैसे, अगर अमेरिका में वेतन अधिक देना पड़े, तो स्पष्ट रूप से वहाँ की कंपनी सस्ते श्रम वाले देश में जाना चाहेंगी। इस हिसाब से पूंजी का क्षय होता है, जिसे रोकना जरूरी माना जा रहा है।
  • यद्यपि माल एवं पूंजी की तुलना में श्रम की मुक्त आवाजाही कम रखी गई थी, फिर भी आज पहले की तुलना में अंतरराष्ट्रीय प्रवजन बढ़ गया है। प्रवासियों के लिए विरोध की नीति का कारण बदलती राजनीतिक-प्रजातांंत्रिक व्यवस्था को माना जा सकता है। इस विरोधी नीति ने तो कहीं-कहीं घृणित नस्लवाद का रूप ले लिया है। जहाँ अमेरिका में मुसलमानों के प्रति क्षोम है, तो वहीं फ्रांस में उत्तरी अफ्रीका के मुसलमानों के प्रति है। यही जर्मनी में मध्य-पूर्वी देशों से आए प्रवासियों के लिए है।

इन सब प्रवृत्तियों का आखिर अंत कहाँ जाकर होगा? श्रम-आव्रजन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। आधुनिक राष्ट्रों के लिए जातीयता चिन्ता का विषय बनी रहेगी। पूंजी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। बड़ी-बड़ी आपूर्ति श्रृंखलाओं एवं अन्य अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क भी यथावत बने रहेंगे। व्यापार पर पड़ने वाले प्रभाव भी यथावत बने रहेंगे। व्यापार पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। अब यह राष्ट्राध्यक्षों पर निर्भर करता है कि वे बिना किसी व्यापारिक जंग केआयात पर शुल्क बढ़ाकर अपने घरेलू व्यापार की किस प्रकार से रक्षा कर पाते हैं।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित आशुतोष वार्ष्णेय के लेख पर आधारित।

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