राजकोषीय संघवाद के चार स्तम्भ
Date:23-07-19 To Download Click Here.
भारतीय संविधान निर्माताओं ने केन्द्राभिमुख पूर्वाग्रह के साथ भारत को राज्यों के संघ का परिधान पहनाया, और वह इसलिए, ताकि नवनिर्मित राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित रहे। तब से लेकर अब तक भारत की अर्थव्यवस्था, राजनीति, जनसांख्यिकी और समाज में परिवर्तन के कई दौर आ चुके हैं। आकांक्षाओं के पंख लगाकर उड़ता आज का भारत एक प्रगतिशील मार्ग पर है। इस संदर्भ में भारत के राजकोषीय संघवाद और उसको नया रूप देने पर एक नजर डाली जानी चाहिए।
आमतौर पर, संघीय सरकारों को ऊध्र्व और क्षैतिज असंतुलनों का सामना करना पड़ता है। ऊध्र्व असंतुलन का उदय तब होता है, जब कर प्रणाली का ढांचा, राज्यों की तुलना में केन्द्र को अधिक राजस्व प्रदान करने की दृष्टि से बनाया जाता है। जबकि संविधान में राज्य सरकारों को उत्तरदायित्व अधिक दिए गए हैं। उदाहरण के लिए अगर वस्तु और सेवा कर पर नजर डालें, तो संविधान में सार्वजनिक व्यय के लिए राज्य सरकारों को 60 प्रतिशत का निर्देश है, जबकि केन्द्र को 40 प्रतिशत का।
वहीं क्षैतिज असंतुलन का उदय तब होता है, जब राज्यों की सामाजिक और अवसंरचनात्मक पूंजी के कारण अंतर, विकास दर और उनकी विकास की स्थिति भिन्न-भिन्न होती है। परंपरागत रूप से तो वित्त आयोग ऐसे असंतुलन को संभालता रहा है, और आगे भी उसे एक स्तम्भ की तरह खड़े रहना होगा।
असंतुलन को संभालते पहले और दूसरे स्तम्भ
भारत में क्षैतिज असंतुलन को थोड़ा बारीकी से समझे जाने की जरूरत है। इसमें दो प्रकार के असंतुलन होते हैं। पहला, सार्वजनिक वस्तु और सेवाओं की उपलब्धता से जुड़ा होता है, और दूसरा प्रगति को गति देने वाले ढांचे या परिवर्तनशील पूंजी घाटे से। इन दोनों ही प्रकार के असंतुलन को दूर करने के लिए दो अलग-अलग नीतियाँ चाहिए। टिम्बरगन अलाइन्मेन्ट प्रिंसिपल की मदद से हम ऐसा कर भी सकते हैं। इसमें दो स्तम्भों की आवश्यकता होगी। नए राजकोषीय संघीय ढांचे में वित्त आयोग और नीति आयोग को पहला और दूसरा स्तम्भ बनना होगा। मूलभूत सार्वजनिक वस्तु और सेवा से जुड़े क्षैतिक असंतुलन को वित्त आयोग संभाल सकता है, और परिवर्तनशील पूंजी घाटे का असंतुलन नीति आयोग संभाल सकता है।
सहकारी संघवाद को संभव व सफल बनाने के लिए नीति आयोग को पर्याप्त संसाधन दिए जाएं। इनकी सहायता से वह उन राज्यों में विकास कार्यों को गति दे, जो अन्य की तुलना में पिछड़ रहे हैं। संक्षेप में कहें, तो नीति आयोग को फार्मूलाबद्ध तरीके से परिवर्तनशील पूंजी के आवंटन में लगाया जा सकता है। इस फार्मूलाबद्ध हस्तांतरण में उपयोग किए जाने वाले मापदंडों के चर, वित्त आयोग द्वारा पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाने वाले चरों से बहुत अलग होंगे।
इस हेतु नीति आयोग को एक अलग मूल्यांकन कार्यालय बनाना होगा, जो अनुदानों के उपयोग की प्रभावशीलता का निरीक्षण और मूल्यांकन कर सके। ऐसा करने में नीति आयोग को माइक्रो-प्रबंधन या अन्य विवादों में नहीं उलझना चाहिए। इस स्थान पर काम करने के लिए नीति आयोग को उच्च निर्णायक शक्ति से लैस करना होगा, क्योंकि उसे धनी राज्यों के निगमों के संसाधनों को गरीब राज्यों में स्थानांतरित करना होगा।
विकेन्द्रीकरण का सूत्रपात – तीसरा स्तम्भ
धनी राज्यों को संसाधनों का स्थानांतरण गरीब राज्यों में करने वाला सिद्धांत सरकार के तृतीय स्तर पर भी लागू किया जाए, क्योंकि एक ही राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक असमानता मिलती है।
राजकोषीय संघीय ढांचे में सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से विकेन्द्रीकरण को तृतीय स्तम्भ की तरह खड़े होना होगा। पंचायत से जुड़े 73वें और स्थानीय शहरी निकायों से जुड़े 74वें संविधान संशोधन को महत्वपूर्ण बनाना ही होगा। इसके लिए स्थानीय स्तर पर सार्वजनिक वित्त पोषण की भी शुरुआत करनी होगी। इसके लिए स्थानीय निकायों और पंचायतों का एक समेकित फंड बनाया जा सकता है। प्रशासन की तृतीय स्तर यानी सथानीय प्रशासन के समेकित फंड से जुड़े धन को सीधे वहाँ पहुँचाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 266/268/243एच तथा 243 एक्स में संशोधन करना होगा। संशोधन के साथ ही केन्द्र और राज्यों को अपने वस्तु एवं सेवा कर में से बराबर का भाग स्थानीय प्रशासन के फंड में भेजना होगा।
उदाहरण के लिए, केन्द्र और राज्यों के वस्तु एवं सेवा कर के 1/6वें भाग को स्थानीय प्रशासन फंड में भेजने से स्थानीय शहरी निकायों को सकल घरेलू उत्पाद में सार्वजनिक वस्तुओं पर व्यय के लिए 1 प्रतिशत की वित्तीय सहायता मिल सकेगी। यह राजकोषीय संघवाद के तृतीय स्तम्भ की तरह काम करेगा। राज्य वित्त आयोग को केन्द्रीय वित्त आयोग के समान दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।
चौथा स्तम्भ – वस्तु एवं सेवा कर
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वस्तु एवं सेवा कर में अनेक खामियां हैं। इसके सरलीकरण की जरुरत है। साथ ही इसका दायरा भी बढ़ाया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में अभी सिनगुड्स (शराब जैसी बुरी वस्तुएं) पर उचित सरचार्ज के साथ सिंगल रेट वस्तु एवं सेवा कर लगाना, निर्यात के लिए जीरो रेटिंग, एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर तथा ई-वे बिल में संशोधन के लक्ष्य को जल्द-से-जल्द प्राप्त करना है।
वस्तु एवं सेवा कर परिषद् को अपना स्वतंत्र कार्यालय स्थापित करके अपने लिए अलग विशेषज्ञों की नियुक्ति करना जरूरी है। इससे उसकी कार्यप्रणाली पारदर्शी और व्यवस्थित हो सकेगी। इसके साथ ही भारत देखेगा कि किस प्रकार यह कर-प्रणाली नए राजकोषीय संघीय ढांचे के चारों स्तम्भों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम बखूबी करती है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित विजय केलकर और अभय पीठे के लेख पर आधारित। 24 जून, 2019