5 खरब डॉलर अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य – 2

Afeias
22 Jul 2019
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Date:22-07-19

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देश को रुपांतरित कर, ऊँचाइयों पर ले जाने हेतु निःसंदेह कुछ बड़ा सोचने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री के विकास के लक्ष्य से उम्मीद की जा सकती है कि यह भारत के अधिकारिक सांख्यिकी पर आधारित होगा, जिससे आम जनता को भी इस तथ्य की सुनिश्चितता हो कि आर्थिक विकास मुख्यतः निर्माण क्षेत्र को ध्यान में रखकर चलता है। वर्तमान संदर्भों में अर्थव्यवस्था का विकास केवल स्वदेशी उत्पादन को आधार बनाकर नहीं किया जा सकता। इसका संबंध ईज़ ऑफ लिविंग से भी जोड़ा जाना चाहिए। अतः प्रश्न उठता है कि एक मूल्यवान अर्थव्यवस्था के विशिष्ट गुण क्या होने चाहिए ?

1. अर्थव्यवस्था ऐसी हो, जिससे हम भारतीय सशक्त अनुभव करें। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम ऐसा महसूस नहीं करते हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत का स्थान काफी नीचे है। हैप्पीनेस या प्रसन्नता का सीधा संबंध लोगों के कल्याण से है। इसके लिए सबसे पहले शिक्षा और अच्छा स्वास्थ्य मायने रखता है। अभी हम ऐसे भारत में रह रहे हैं, जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों का ही ढाँचा चरमराया हुआ है। एक मूल्यवान अर्थव्यवस्था की पहली शर्त सबके लिए स्वास्थ्य और शिक्षा होनी चाहिए।

2. दूसरी शर्त अवसर की समानता है। पिछले तीन दशकों से भारत में आय की असमानता बढ़ रही है। कुछ मायनों में तो उच्च रूप से असमान समाज माने जाने वाले चीन की तुलना में हमारे यहाँ असमानता अधिक है। आय की असमानता के अलावा लैंगिक असमानता होने से महिलाओं को आय के कम अवसर मिलते हैं। 1947 के बाद से गिरता लैंगिक अनुपात भी चिंता का विषय है। भारत में असमानता को दूर करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर लोगों की क्षमता को बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा सबसे अच्छा माध्यम है। नकद हस्तांतरण तो केवल इससे बचने का एक तरीका मात्र है।

3. किसी भी आकार की अर्थव्यवस्था के मूल्यांयकन का एक सार्थक आधार उसमें निहित प्राकृतिक पूंजी भी होती है। अभी तक विकास के नाम पर गरीबी उन्मूलन के लिए, प्रकृति के संरक्षण को न केवल नजरअंदाज किया गया, बल्कि सभी दलों द्वारा उसका उपहास किया गया है। विश्व के सबसे प्रदूषित दो-तिहाई शहर भारत में हैं। वायु प्रदूषण जीवनावधि को कम करता है। जीवित रहने पर उत्पादकता को कम करता है। इसमें भी गरीब ही सबसे अधिक शिकार बनते हैं। पर्यावरण के क्षरण का एक बहुत बड़ा कारण, अव्यवस्थित विकास है।

इन सब बिन्दुओं से निष्कर्ष यही निकलता है कि विकास प्रक्रिया ऐसी हो, जो देश की अधिकांश जनता को कम नुकसान पहुँचाए। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि भले ही विकास की गति धीमी हो, लेकिन यह गरीब जनता को मुख्य धारा में लाने की ओर प्रवृत्त हो। हम कुल-मिलाकर मूर्त वस्तुओं की कमी की स्थिति को लेकर आसानी से चल सकते हैं, लेकिन देश के लोगों की प्रसन्नता में कमी को लेकर नहीं चल सकते। ऐसी ही अर्थव्यवस्था बहुमूल्य मानी जा सकती है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित पुलाप्रे बालकृष्णन् के लेख पर आधारित। 20 जून, 2019

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