मैक्रोइकॉनॉमिक पूर्वानुमान लगाना कठिन है
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भारत के चैथे तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की दर घटकर 6.1 प्रतिशत हो गई, जिससे विश्व में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में उसका स्थान फिलहाल छिन गया है। हालांकि अर्थशास्त्रियों को ऐसा होने की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। बल्कि विमुद्रीकरण के बाद उच्च मूल्य वाले 2000 रुपये के नोट के आने के कारण जिस प्रकार उसके नकारात्मक प्रभावों पर काबू पा लिया गया था, उसे देखते हुए वे अर्थव्यवस्था में सकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रति आशान्वित थे। कुल-मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मैक्रोइकॉनोमी के बारे में पूर्वानुमान लगाना बेकार है। इसके कई कारण हैं-
- जितने भी डाटा एकत्र किये जाते हैं, उनमें आपस में कारण-कार्य संबंध नहीं होता, जिसके कारण उन पर आधारित अनुमान सही या गलत दोनों ही हो सकते हैं। इसका उदाहरण विमुद्रीकरण के बाद वाले पहले तिमाही में देखा जा सकता है। इस दौरान के आंकड़े यह नहीं दिखाते कि अर्थव्यवस्था की गति धीमी होने का कारण विमुद्रीकरण था। कुछ लोगों का अनुमान है कि वर्तमान गिरावट का कारण विमुद्रीकरण के पहले से चली आ रही गिरावट की प्रवृत्ति हो सकती है।
- साथ ही तीसरे तिमाही में अच्छी खासी उछाल का मतलब यह नहीं लगाया जा सकता कि विमुद्रीकरण का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। अर्थव्यवस्था का आकलन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें एक के बाद एक अनेक चर राशियाँ होती हैं। यह विज्ञान के प्रयोगों से बिल्कुल भिन्न है, जहाँ वैज्ञानिकों को चर राशि को बाहर निकाल देने की पूरी सुविधा होती है।
- अर्थव्यवस्था का सटीक पूर्वानुमान लगाना इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि इसके वेरियेबल में आपसी संबंध स्थिर नहीं होते। अगर अर्थशास्त्री विमुद्रीकरण के दौरान सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ने वाले एकदम पक्के परिणामों को जान भी लें, तो भविष्य के लिए उसका क्या उपयोग है? क्योंकि अर्थव्यवस्था तो गतिशील है।
- मैक्रोइकोनोमिक पूर्वानुमान बहुत हद तक उन तथ्यों का आकलन करता है, जो मौलिक रूप से असीमित हैं। अगर सकल घरेलू उत्पाद की ही बात करें, तो हम देखते हैं कि इसके ‘अच्छे’ की परिभाषा भी सांख्यिकी विशेषज्ञों द्वारा मनमाने ढंग से गढ़ी गई है।
- सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों पर राजनीतिक प्रभाव भी होता है और कुछ सच्चे भी होते हैं। इसलिए इनकी विश्वसनीयता पर संदेह है।
इन सबके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि अर्थशास्त्री कभी सही भविष्यवाणियाँ कर ही नहीं सकते। लेकिन ऐसे पूर्वानुमानों में गुणवत्ता होनी अतिआवश्यक है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित प्रशांत पेरूमल के लेख पर आधारित।