‘मेक इन इंडिया’ की विफलता
Date:05-02-20 To Download Click Here.
2014 में भाजपा सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की शुरूआत की थी। मोदी सरकार का यह विचार कोई नया नही था। भारत में फैक्टरी की संस्कृति बहुत पुरानी है। सरकार की इस औपचारिक घोषणा ने भारत को विनिर्माण के क्षेत्र में एक केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया। इस कार्यक्रम के तीन लक्ष्य थे। (1) विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर को 12.14% प्रति वर्ष बढ़ाना; (2) 2022 तक इस क्षेत्र में रोजगार के 10 करोड़ अवसर उत्त्पन करना और (3) 2022 तक सकल घरेलू उत्पाद में इस क्षेत्र की भागीदारी को 25% तक ले जाना। इन तीनों आधारों पर अगर हम ‘मेक इन इंडिया’ का विश्लेषण करें, तो जान सकते हैं कि आखिर सरकार का यह कार्यक्रम विफल क्यों हुआ।
‘मेक इन इंडिया’ को सफल बनाने के उद्देश्य से सरकार ने नीतिगत बदलाव किए थे। चूंकि नीतिगत बदलाव विनिर्माण क्षेत्र के तीन प्रमुख तत्वों-निवेश, आउटपुट और रोजगार वृद्धि की दृष्टि से किए गए थे, इसलिए मुख्यतः इन आधारों पर नीति की समीक्षा की जानी चाहिए।
1.निवेश की बात करें, तो पिछले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था में निवेश की दर बहुत धीमी रही है। ऐसा तब हो रहा है, जब हम अधिक पूंजी निवेश की अपेक्षा रखते हैं। 2017-18 में कुल निवेश गिरकर 28.6% हो गया था। दिलचस्प बात यह है कि इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कमोवेश यही रही किंतु निजी क्षेत्र की भागीदारी कम हो गई। घरों की बचत में कमी आ गई, वहीं कार्पोरेट की बचत बढ़ गई। निवेश के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने के बावजूद निवेश में गिरावट आई है।
2.आउटपुट वृद्धि के संदर्भ में देखे, तो विनिर्माण में अप्रैल 2012 से लेकर नवम्बर 2019 तक केवल दो अवसरों पर वृद्धि देखी गई। डेटा तो यह भी बताते हैं कि अधिकतर महीनों में यह 3% या उससे कम दर्ज की गई।
3.रोजगार वृद्धि के क्षेत्र में तो सरकार ने डेटा ही बहुत देर से जारी किया। इसका कारण यही है कि औद्योगिक रोजगार के क्षेत्र में ऐसे कोई नए अवसर नहीं आए, जो श्रम बाजार की गति को बनाए रख सकें।
‘मेक इन इंडिया’ की विफलता के पीछे यही तीन मुख्य कारण रहे। ये कारण क्यों बने, इनका विश्लेषण करना भी आवश्यक है।
1.वर्तमान सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही योजनाओं की घोषणाओं की झडी लगा दी। ये योजनाएं विदेशी पूंजी निवेश और उत्पाद के लिए वैश्विक बाज़ार पर आश्रित थीं। स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि अन्य बाजारों की मांग एवं पूर्ति के अनुसार ही घरेलू उत्पादन की योजना बनाई जाती है।
2.नीति निर्माताओं ने नीतियाँ तो अच्छी बनाई, परंतु उनके कार्यान्वयन पर कोई ठोस काम नहीं किया। यही कारण है कि आज देश में अनेक परियोजनाएं अधर में लटकी पड़ी हैं।
3.विनिर्माण क्षेत्र में 12-14% की वृद्धि दर की महत्वाकांक्षी सोच, औद्योगिक क्षेत्र की क्षमता के प्रतिकूल है।
4 ”मेक इन इंडिया” ने एक साथ कई क्षेत्रों को अपनी चपेट में ले लिया। इससे नीतिगत फोकस नहीं बन पाया। इसके अलावा इसे घरेलू अर्थव्यवस्था के तुलनात्मक लाभों के संदर्भ में नही देखा गया।
5.इस नीति में स्वदेशी उत्पादों को विदेशी पूंजी से निर्मित करने जैसा विरोधाभास रहा।
कुल मिलाकर इस कार्यक्रम में नीतिगत असंगतता रही। इसने ‘व्यापार की सुगमता’ रैकिंग में तो भारत को उछाल दिला दी, परंतु अपेक्षित निवेश नहीं हो पाया। अर्थव्यवस्था में विनिर्माण को गति देने के लिए धरातल पर मजबूत नीति की जरूरत है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित एम. सुरेश बाबू के लेख पर आधारित। 20 जनवरी, 2020