मुक्त व्यापार और विकास

Afeias
18 Nov 2019
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Date:18-11-19

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हाल ही में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और उनकी अर्थशास्त्री पत्नी डफ्लो की आगामी पुस्तक ‘गुड इकॉनॉमिक्स हार्ड टाइम्स बेटर आर्म्स टू अवर बिगेस्ट प्राब्लम्स’ में उन्होंने अधिक से अधिक मानवीय दुनिया के निर्माण के लक्ष्य को ध्यान में रखा है। इसको ध्यान में रखते हुए अर्थशास्त्र के कुछ सिद्धांतों की चर्चा की है।

  • पहला सिद्धांत मुक्त व्यापार का लिया जा सकता है। यह आधुनिक अर्थशास्त्र के सबसे पुराने कथनों में से एक है। इसे दो शताब्दी पहले डेविड रीकार्डो ने समझाया था। इस प्रकार का व्यापार प्रत्येक देश को उसके सर्वश्रेष्ठ में विशेषज्ञता प्राप्त करने की छूट देता है। इससे जहाँ-जहाँ व्यापार होता है, कुल आय में वृद्धि होती है।
  • दूसरा विचार तुलनात्मक लाभ का है, जो बताता है कि राष्ट्रों को वही करना चाहिए जिसमें अपेक्षाकृत वे बेहतर हैं। इसकी श्रेष्ठता को समझने के लिए पूर्ण लाभ वाले विचार से इसकी तुलना करके देखना चाहिए। पूर्ण लाभ का सिद्धांत सीधा है। जैसे-स्कॉटलैण्ड में अंगूर नहीं उगते हैं, और फ्रांस में स्कॉच बनाने के अनुकूल मिट्टी नहीं है। अतः स्कॉटलैण्ड अपनी व्हिस्की फ्रांस को बेचे, और फ्रांस अपनी वाहन स्कॉटलैण्ड को।

समस्या तब आती है, जब चीन जैसा देश सब कुछ अच्छा बनाने में सक्षम हो जाता है। तो क्या ऐसा देश, अन्य देशों के व्यापार के लिए कुछ छोड़ेगा?

1817 में रिकार्डो का कहना था कि चीन जैसे देश का सब कुछ बेचना संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए अन्य देशों के पास भी व्यापार से धन आना चाहिए। अतः व्यापार के बारे में सोचते हुए सभी देशों को ध्यान में रखा जाना जरूरी है। तुलनात्मक लाभ में ऐसा नहीं है कि किसी देश का नुकसान न हो।

कुछ उत्पादों के लिए अधिक श्रमबल की आवश्यकता होती है। अगर किन्हीं दो देशों के पास समान उत्पादन तकनीक है, तो श्रम की अधिकता वाला देश तुलनात्मक लाभ में बाजी मार ले जाएगा।

अतः श्रम बल की अधिकता वाले भारत जैसे देशों को श्रम आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए न कि पूंजी आधारित। श्रम बल की अधिक्ता वाले देश अधिकतर गरीब हैं। यहाँ के श्रमिक अपने नियोक्ताओं की तुलना में बहुत निर्धन हैं। इसलिए ऐसे देशों में मुक्त व्यापार से निर्धनों को लाभ हो सकता है, और असमानता घट सकती है।

सकल घरेलू उत्पाद केवल उन वस्तुओं को महत्व देता है, जिनका मूल्य आंका जा सकता है और जिनका व्यापार किया जा सकता है। यह श्रमिकों के कल्याण और उनकी भलाई से कोई सरोकार नहीं रखता। वास्तविक उत्पादकता वृद्धि दर में वास्तविक कल्याण में हुई बढ़ोतरी का कोई संज्ञान नहीं लिया जाता है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अभिजीत बनर्जी और एस्थर डफ्लो की पुस्तक के अंश पर आधारित। 15 अक्टूबर, 2019