क्या वैश्वीकरण खत्म हो रहा है ?

Afeias
15 Nov 2019
A+ A-

Date:15-11-19

To Download Click Here.

मुख्यधारा के कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अमेरिका जैसे विकसित देशों की व्यापार संरक्षण और आव्रजन नियंत्रण नीति, उनकी अर्थव्यवस्थाओं को उसी प्रकार से नष्ट कर रही है, जैसे देशीयता की भावना उनके समाज को।

कैपिटल इकॉनॉमिक्स जैसी निजी शोध कंपनी ‘वैश्वीकरण की मृत्यु‘ पर कुछ साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।

  • इसके अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 1990 के बाद से वैश्विक स्तर पर प्रति व्यक्ति आय के एक तिहाई में होने वाली बढ़ोत्तरी का कारण, वैश्वीकरण पर आधारित उत्पादकता में वृद्धि रहा है। हालांकि इन लाभों का वास्तविक आधार उभरते बाज़ार रहे हैं, न कि विकसित अर्थव्यवस्थाएं।

वैश्वीकरण के कारण उन्नत अर्थव्यवस्थाओं को उत्पादन के पूरे ढांचे का पुनरावलोकन करने के लिए बाध्य होना पड़ा था। व्यापार में होने वाली हानि का प्रमुख कारण उनका श्रम बाजार रहा है।

  • इससे संबंधित दूसरी समस्या तकनीक की है। तकनीकी परिवर्तन से निःसंदेह औसत आय और प्रति व्यक्ति प्रगति का आंकड़ा बढ़ा है। यहाँ सफेद पोश पेशेवर और फैक्ट्री कामगारों के बीच काम का अंतर बढ़ता गया है। फैक्ट्री श्रमिकों के लिए रोजगार में ठहराव आ गया और असमानता बढ़ी है। एक अमेरिकी कंपनी ने तो इसे 50 वर्षों के शीर्ष पर बताया है।

यूरोप ने भी ऐसी स्थितियों का सामना किया है। यहाँ स्थिति थोड़ी कम खराब रही, क्योंकि सरकारों द्वारा चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं और तकनीक ने इसे संभाल लिया था।

वैश्वीकरण के पक्षकारों का मत –

  • ये मानते है कि बढ़ती असमानता और श्रमिक भागीदारी में कमी का मुख्य कारण प्रौद्योगिकी में आया परिर्वतन है। वैश्वीकरण की इसमें भूमिका कम है। सच्चाई यह है कि विकसित देशों में औसत आय में बढ़ोत्तरी और तकनीक में परिर्वतन आया ही इसलिए, क्योकि वैश्वीकरण ने विकसित अर्थव्यव्यवस्थाओं के पास अस्तित्व और विकास के संकट से निपटने के लिए ‘हाई एण्ड‘ क्षेत्रों को ही छोड़ा था। अतः उन्हें तकनीकी परिर्वतनों की ओर झुकना पड़ा। इस अधिक संतुलित उत्पादक संरचना में निर्भरता के कम होने की उम्मीद थी।
  • इस पुनः संयोजन में ‘लागत‘ प्राप्त करने से क्या तात्पर्य हो सकता था ? माना कि किसी अमेरिकी आई टी कंपनी, जिसने वैश्वीकरण के दौर को सह लिया हो, के लिए ऑफशोरिंग को सही ठहराया जा सकता है। हालांकि, मैक्रो इकॉनॉमिक स्तर पर रोजगार के अवसर वाले क्षेत्रों का कम होते जाना, और बढ़ती असमानता से विकास को बढ़ावा देने वाली मांग के लिए चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं।
  • शोधकर्ताओं का मानना है कि सन् 2000 के शुरूआत में आए उपभोक्ता ऋण में उछाल को, व्यय को बनाए रखने के एक साधन के रूप में समझाया जाना चाहिए। इसने 2008 के आर्थिक संकट से निकलने में मदद भी की थी।

फिलहाल, मांग को बढ़ाने के लिए सार्वभौमिक बुनियादी आय को मूलमंत्र माना जा रहा है। उत्पादन के असंतुलन को व्यवस्थित करने तक सरकारों को इस प्रकार के अनिश्चित उपायों के बारे में सोचना होगा।

वैश्वीकरण की सामाजिक लागत भी आती है, जो अंततः आर्थिक लागत के रूप में प्रकट होती है। अमेरिकी समाज में फैली नशीले पदार्थों के सेवन की बीमारी ने लोगों के स्वास्थ्य पर एक बड़ी राशि खर्च करने का बोझ डाल दिया था।

निष्कर्ष यही है कि वैश्वीकरण से दूर होते देशों की नीति के पीछे उनका अपना एक तर्क है। उच्च स्तरीय तकनीकी और श्रमिक स्तर के रोजगारों के बीच एक संतुलन की स्थिति बनाकर चलना, प्रत्येक देश का एजेण्डा होना चाहिए। इस प्रक्रिया से अब उन देशों को सर्वाधिक हानि पहुंच रही है, जिन्होंने वैश्वीकरण का भरपूर लाभ उठाया है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित अमीक बरूआ के लेख पर आधारित। 21 अक्टूबर, 2019

Subscribe Our Newsletter