मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) में भारत की वास्तविक स्थिति
Date:16-10-18 To Download Click Here.
- गत वर्ष संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भारत की रैंकिंग एक स्थान से ऊपर उठकर 130 पर पहुँच गई। इसके साथ ही गौर करने वाली बात यह है कि 1990 से लेकर अब तक भारत ने मानव विकास पैमाने पर काफी बेहतर किया है। 1990 में जहाँ भारत का मूल्यांकन 0.43 पर किया गया था, वहीं 2017 में यह लगभग 50 प्रतिशत बढ़कर 0.63 पर आ गया है।
- भारतीय नागरिकों की जीवन अवधि में भी बढ़ोत्तरी देखी गई है। 1990 में यह औसतन 57.9 वर्ष हुआ करती थी, जो अब बढ़कर 68.8 वर्ष हो गई है।
- इन्हीं वर्षों की तुलना करने पर प्रति व्यक्ति आय में भी 267 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
- स्कूल में बीतने वाले औसत वर्ष भी 7.6 से बढ़कर 12.3 हो गए हैं।
- दूसरी ओर, भारत में विकास समान रूप से नहीं हुआ है। यहाँ की आय में 18.8 प्रतिशत की असमानता है, जो कि बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है। अगर असमानता के स्तर को देखते हुए भारत के मानव विकास को आंका जाए, तो यह 26.80 प्रतिशत गिरकर 0.468 पर आ जाता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि जितना भी सुधार हुआ है, वह ऊपरी स्तर तक ही सीमित रहा है। गरीब जनता को केवल इतनी राहत मिली है कि वह गरीबी रेखा से ऊपर उठ सकी है। मध्य वर्ग ने उतनी उन्नति नहीं की जितनी कि उसे करनी चाहिए थी। लघु एवं मध्यम दर्जे के उद्यम कृषि में लगे लोगों को अन्य उद्योगों में स्थानांतरित नहीं कर पाए हैं। इसके साथ प्रति व्यक्ति आय में दिखने वाली लैंगिक असमानता एक अलग ही मिश्रित दृश्य प्रस्तुत करती है।
- भारत का मानव विकास सूचकांक अन्य दक्षिण एशियाई देशों के 0.638 की तुलना में अधिक है। परन्तु व्यापक स्तर पर देखने पर पता चलता है कि विश्व के अन्य देशों में भी सामान्य रूप से नागरिकों के जीवन-स्तर में वृद्धि हुई है।
- भारत की आय और लैंगिक असमानता के प्रतिशत को देखते हुए लगता है कि हमारी समाजवादी परम्परा ने हमें प्रगतिशील बनने में कोई खास मदद नहीं की है।
अब समय आ गया है, जब आर्थिक सुधारों को युद्ध स्तर पर चलाया जाए। इसके लिए अपनी अर्थव्यवस्था को मुक्त व्यापार की श्रेणी में रखते हुए ईज ऑफ डुईंग बिज़नेस पर ध्यान दिया जाए। इससे समाज के सभी वर्गों को लाभ मिलेगा। आरक्षण और श्रम कानून जैसे समाजवादी नारों से भारत की वास्तविक क्षमता का कभी सही उपयोग नहीं किया जा सकेगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 17 सितम्बर, 2018