महिला पत्रकारों की सुरक्षा का अहम् प्रश्न

Afeias
21 Aug 2020
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Date:21-08-20

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इंटरनेट के प्रसार के साथ ही अपराध का एक नया रूप सामने आता जा रहा है , जो साइबर जगत में किसी व्यक्ति पर उसके आचरण , रोजगार , व्यक्तित्व तथा पीछा करने जैसे विभिन्न रूपों में सामने आ रहा है। हाल ही में तमिलनाडु की एक महिला पत्रकार पर भी इसी प्रकार का हमला किया गया है। इसको चरित्र हनन की गंभीरता से लेते हुए मुख्यमंत्री ने तत्काल कठोर कदम भी उठाए हैं।

सोशल मीडिया पर झूठी खबरे फैलाना , भड़काऊ पोस्ट डालना , घृणा फैलाना या किसी को बदनाम करना अब सामान्य सा समझा जाने लगा है। यह समस्या किसी देश , क्षेत्र और जाति तक सीमित नहीं है। बल्कि वैश्विक है। 2012 से ही इस प्रकार की प्रवृत्ति को बढ़ते देखा जा रहा है। खासतौर पर महिलाओं और उनमें भी महिला पत्रकारों को डराने-धमकाने के लिए इस प्रकार के प्रयास अधिक किए जाते हैं। इस पर महिला पत्रकारों के समूहों ने सरकारों के साथ-साथ ट्विटर तथा फेसबुक जैसे बड़े मंचों से लिंग-आधारित अपराधों का रोकने के लिए संवेदनशीलता वाले मापदंड प्रचारित करने की अपील की है।

2019 में यूनेस्को ने ‘स्टैंडिंग अप एगेंस्ट ऑनलाइन हैरेसमैट ऑफ वीमेन जर्नलिस्ट’ नामक एक संगोष्ठी आयोजित की थी। इसके पीछे महिला होने के कारण महिला पत्रकारों के साथ होने वाली साइबर बुलिंग के प्रति लोगों को जागरूक करना , और उसे रोकने का प्रयास करना था।

2 नवम्बर , 2019 को , पत्रकारों के विरूद्ध होने वाले अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस के दिन ही चार महाद्वीपों के नौ देशों में पत्रकार महिलाओं की स्थिति की समीक्षा की गई थी। इसने पत्रकारिता में महिलाओं को प्रभावित करने वाले इंटरनेट हमलों और मामलों व उनके प्रभाव का लेखा-जोखा तैयार किया गया। पत्रकारों की सुरक्षा का अध्ययन करने वाले सभी शोधकर्ता इस तथ्य से सहमत हैं कि ऑनलाइन प्रताडनाओं का महिला पत्रकारों पर गहरा भावनात्मक और शारीरिक प्रभाव पड़ता है। उन्हें कई बार लंबे समय तक डर का अनुभव होता रहता है।

इस प्रकार की घटनाएं हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को बाधित करती हैं। फिलहाल इस हेतु अलग से कोई कानून नहीं है। अभी ऐसे अपराधों को भारतीय दंड संहिता और कार्यक्षेत्र में महिलाओं के प्रति होने वाले यौन-शोषण अधिनिमय ,2005 के अंतर्गत ही दर्ज किया जाता है।

गौरी लंकेश जैसी दबंग पत्रकार की हत्या के बाद से महिला पत्रकारों को एक सुरक्षित कामकाजी वातावरण उपलब्ध कराने के प्रयास जारी हैं। परंतु कानून कम हैं। उम्मीद की जा सकती है कि इस ओर जल्द ही कोई ठोस कदम उठाया जा सकेगा।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित ए.एस. पनीरसेवलम के लेख पर आधारित। 3 अगस्त , 2020

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