अतीत से वर्तमान को जोड़ता संवैधानिक फैसला

Afeias
24 Aug 2020
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Date:24-08-20

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अयोध्या की बाबरी मस्जिद को लेकर 6 दिसम्बर , 1992 की दोपहर इसके ढहा दिए जाने से लेकर लम्बे समय तक एक अस्पष्टता सी बनी रही थी। बाह्य रूप से तो यह 16वीं शताब्दी में बनी एक मस्जिद की तरह ही था , परंतु इसकी आंतरिक संरचना एक राम मंदिर की थी। सन 1949 में वहाँ रामलला की मूर्ति की स्थापना की गई थी।

दिलचस्प बात यह है कि इसको लेकर उभरी अस्पष्टता , पूरी तरह से स्वतंत्रता-पश्चात् की घटना नहीं थी। स्थानीय मान्यता चली आ रही थी कि बाबर के सेनापति मीर-बाकी ने राम के जन्म-स्थान पर ही बाबरी मस्जिद बनाई है। कम-से-कम अवध में तो ऐसा प्रतिध्वनित हुआ था। हालांकि जन्मस्थान के नुकसान का अर्थ यह नहीं हुआ कि हिंदुओं ने अपनी सामूहिक स्मृति से इसका महत्व मिटा दिया। मस्जिद की परिधि पर उन्होंने एक राम चबूतरा बनाया , जहाँ वे श्रीराम की पूजा करते रहे। एक समय पर यहूदियों ने भी अपने पूजा स्थल पवित्र माउंट पर अपना नियंत्रण खो दिया था , और वे जेरूसलम के इस पवित्र स्थान की बाहरी दीवार पर ही प्रार्थना करने लगे थे।

1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस , उच्चतम न्यायालय को दिए गए आश्वासन के उल्लंघन में किया गया था। विवादित ढांचे को ढहाने और जल्दबाजी में निर्मित एक पूजा-स्थल में फिर से पूजा शुरू करने के लिए , अस्पष्टता के सभी निशान मिटा दिए गए थे। विध्वस की रात , राष्ट्र को प्रसारित संदेश में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने उस स्थान पर एक मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा किया था। लेकिन इस आश्वासन में वास्तविक प्रतिबद्धता का अभाव था , और यह जल्द ही भुला दिया गया। इसके बजाय , यह मुद्दा अब जन्मस्थान की जगह पर एक भव्य मंदिर के निर्माण पर केंद्रित हो गया। जो लोग मंदिर के विरोधी थे , वे बैरीकेड और भक्तों के प्रतिबंधित प्रवेश के साथ निर्मित अस्थायी मंदिर को ही अनिश्चित काल तक जारी रखना चाहते थे। जबकि रामभक्त न्यायिक विवाद को समाप्त करके , एक स्पष्ट न्यायिक आदेश प्राप्त करना चाहते थे। 5 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा संपन्न भूमिपूजन के साथ ही लंबे समय से चला आ रहा विवाद अब समाप्त हो गया है।

एक स्थानीय विवाद को राष्ट्रीय चरित्र बनाने वाले कारणों से भविष्य के इतिहासकार पूर्वाग्रहित रहेंगे। 1992 के विध्वंस और हाल ही में हुए भूमिपूजन की प्रतिक्रियाओं के बीच का अंतर बताता है कि भारत बहुत बदल गया है। पहले वाली घटना की प्रतिक्रिया ; मुंबई दंगों और 1993 के सिलसिलेवार बम धमाकों के रूप में हुई थी। जबकि भूमि-पूजन की घटना का गरिमापूर्ण पर्यवेक्षण और राष्ट्रीय पुनरावर्तन की प्रत्याशा के साथ स्वागत किया गया है। अब राम मंदिर , हिंदुओं के लिए सामान्य जीवन का हिस्सा बन गया है।

अयोध्या के अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने राममंदिर आंदोलन को राष्ट्रवादी आवेगों की उस अभिव्यक्ति के रूप मे वर्णित किया , जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी थी। साथ ही उन्होंने प्रस्तावित मंदिर को “हमारी संस्कृति का आधुनिक प्रतिनिधित्व” कहकर संबोधित किया। प्रधानमंत्री के भाषण के संशय से कुछ असंतोष भी फैला। लोगों को लगने लगा कि शायद यह हिंदू राष्ट्र का एक रूपक है।

1947 में स्वतंत्रता आंदोलन की समाप्ति पर जो राजनीतिक आदेश निर्धारित किया गया था , वह 1950 के संविधान में प्रतिबिंबित होता है। बहुत से क्षेत्रों के साथ संविधान ने सार्वजनिक जीवन के मापदंडों को परिभाषित किया और नए गणतंत्र की व्याख्या करने वाले मूल्यों की पहचान की । संविधान ने ‘कानून के शासन’ की स्थापना की। ऐतिहासिक रूप से पीड़ित समुदायों के लिए कुछ विशेषाधिकार के साथ समान नागरिकता प्रदान की। इसे राष्ट्रीयता जैसे बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा गया।

इस सभ्य मौन को नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता , समाजवाद और गुट निरपेक्षता के तीन स्तंभों द्वारा भरा गया था। इस दौर में पूर्व की कई धरोहरों को अनदेखा किया गया और पुराने प्रतिष्ठान धीरे-धीरे सत्ता संरचना से बाहर होते गए। इन सब घटनाओं में राष्ट्रवाद को संविधान के अनुरूप ढालने की प्रवृत्ति रही थी। ‘संवैधानिक राष्ट्रवाद’ का यह संस्करण इस विश्वास पर आगे बढ़ा कि भारतीय अस्तित्व का प्रारंभिक बिंदु 1950 का गणतंत्र दिवस है। इस माध्यम से भारतीय विरासत को धुंध से ढकने का प्रयत्न किया गया था।

आधुनिक भारत के प्रतीक के रूप में राममंदिर संविधान की उपेक्षा नहीं करता है। आखिरकार , इसका निर्माण कानून के शासन द्वारा स्वीकृत किया गया है। यह एक ऐसे भारत के बीच संबंध स्थापित करता है, जो प्राचीनता से लेकर वर्तमान तक मौजूद है। यह भारत की निरंतरता के विश्वास को पुष्ट करता है। एडमंड बुर्के के अनुसार यह जीवित , मृत और अजन्में के बीच एक अपरिहार्य संबंध को जोड़ना चाहता है।

आधुनिक राम मंदिर , सभ्यता की राष्ट्रीयता के एक वैकल्पिक दृष्टिकोण को स्थापित करता है। यद्यपि इस पहलू को जवाहरलाल नेहरू ने भी स्वीकार किया था , परंतु आधुनिकता की अपनी योजना में इंजेक्ट नहीं किया था। राममंदिर में क्षणिक आधुनिकता से परे भारतीय कल्पना को बड़ा करने की क्षमता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वप्न दासगुप्ता के लेख पर आधरित। 9 अगस्त , 2020

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