चुनावी मर्यादा पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

Afeias
01 Feb 2017
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Date:01-02-17

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पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय का धर्म और जाति के आधार पर वोट मांगने को गैर-कानूनी करार कर देना एक ऐतिहासिक कदम है। इस फैसले के अनुसार उम्मीदवार के साथ-साथ उसके प्रतिनिधि, अन्य राजनीतिक और धर्मगुरू भी इस दायरे में आएंगे।

राजनीति के दौरान धर्म और जाति के प्रयोग की भूमिका ब्रिटिश राज में रखी गई थी। उस दौरान जाति और धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करने की कोशिश की गई थी। लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात् जाति और धर्म के इस्तेमाल पर संवैधानिक रोक लगाने की व्यवस्था की गई। इसके बावजूद दलों ने राजनीतिक हितों के लिए जाति और धर्म का प्रयोग कुछ ज्यादा ही किया। खासतौर पर नब्बे के दशक से जाति और धर्म के नाम पर खुलकर गुटबाजी होने लगी। चुनावी लाभ के लिए कई जातियों के समीकरण भी बनने लगे। दिखावे के लिए मोर्चा या गठबंधन, पर असल में ये होते थे- जातियों के समीकरण। ये समीकरण धीरे-धीरे बढ़ते हुए चुनावी भाषणों और नारों तक सीमित नही रहे। जातिगत सम्मेलनों में शिरकत करना, मजहबी जलसों में शामिल होना, मंदिरों के दर्शन और धार्मिक-समारोहों में भागीदारी तथा पूजा-स्थलों को आर्थिक सहायता देना आदि ढेर सारे तरीके ऐसे हैं, जिनसे उम्मीदवार और अन्य राजनीतिक मतदाताओं को अपना इच्छित ‘संदेश‘ देते रहते हैं।

हांलाकि सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, उसका प्रावधान पहले ही जन-प्रतिनिधित्व कानून में है। लेकिन इसका पालन नहीं किया जाता है। हमारे जनप्रतिनिधित्व कानून में ही बचने के ऐसे तरीके हैं, जिनका उपयोग समय-समय पर उम्मीदवार करते रहे हैं।इस फैसले के दौरान भी न्यायालय ने एक बात को स्पष्ट तौर पर न तो देखा और न ही उसे स्पष्ट किया। धर्म, भाषा आदि के आधार पर ‘जबर्दस्ती‘ करना एक बात है और दूसरा है ‘आग्रह‘ करना। मान लें कि हरियाणा के गुज्जर जाट- आधारित व्यवस्था से त्रस्त हैं, तो उन्हें चुनावों में इस बात को मुद्दा बनाकर गुज्जरों को अपने पक्ष में मताग्रह करने का पूरा अधिकार है। यह किसी गुज्जर की जाति के नाम पर उसे मत देने की अपील नहीं है, वरन् किसी अन्य जाति से त्रस्त होकर, अन्य के लिए मत देने की ‘अपील‘ है। इसी प्रकार अगर एक गोरखा यह कहते हुए वोट मांगता है कि ‘मैं गोरखा हूँ, इसलिए मुझे वोट दो‘, तो यह गलत है। परंतु अगर वह यह कहता है कि ‘आप सब गोरखाओं के सम्मान की रक्षा मैं कर सकता हूँ‘, तो इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती।

दरअसल, हमारी धर्म निरपेक्ष व्यवस्था में न्यायधीशों के लिए भी चुनावी प्रक्रिया में धर्म-जाति के आधार पर अंतर करना वाकई मुश्किल का काम है। अगर धर्म और जाति के आधार पर चुनाव लड़ने पर कड़ाई से रोक लगाए जाने की बात की जाए, तो सबसे पहले तो नाम के आधार पर ही कुछ दलों का पंजीकरण रद्द कर दिया जाना चाहिए। जैसे – शिवसेना, अकाली दल, बहुजन समाज पार्टी आदि। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, अरुणाचल के चकमाओं आदि के आंदोलनों को भी जातिगत नामों के आधार पर गैर-कानूनी घोषित कर दिया जाना चाहिए।

यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बावजूद व्यावहारिक रूप में इसे लागू करने में बहुत सी कठिनाइयाँ आएंगी। अभी तक के चुनावों पर अगर नजर डालें, तो भी यह स्पष्ट होता है कि चुनावी हिंसा को रोकने में तो चुनाव आयोग काफी सफल रहा है, लेकिन मतदाताओं को प्रभावित करने वाले भ्रष्ट तरीकों को रोकने में आयोग को वैसी सफलता नहीं मिली है, जैसी मिलनी चाहिए थी।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित अध्र्य सेनगुप्ता एवं अन्य समाचार पत्रों के लेख  पर आधारित।

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