भ्रष्टाचार निवारण कानून में संशोधन
Date:24-08-18 To Download Click Here.
आर्थिक दृष्टि से भारत ऐसी स्थिति में है, जब उसका विकास 9-10 प्रतिशत की दर पर अगले तीस वर्षों तक होना चाहिए। इसको संभव बनाने के लिए नौकरशाही को अलग-अलग क्षेत्रों में मजबूत और प्रगतिशील निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। इसके लिए उन्हें कानून से सुरक्षा मिले। उन्हें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों में दण्ड या उत्पीड़न के भय की आशंका से छूट दी जानी चाहिए।
इसी उद्देश्य को लेकर संसद ने भ्रष्टाचार निवारण विधेयक, 2018 का संशोधित संस्करण पारित किया है। उम्मीद है कि यह विधेयक परिवर्तनकारी सिद्ध होगा।
सरकारी अधिकारियों के साथ समस्या यह रही है कि उनके हर निर्णय से कहीं, किसी-न-किसी को आर्थिक नुकसान या लाभ होता ही होता ही। उनके निर्णयों के मंतव्य को न देखकर, उन पर किसी प्रकार का लांछन लगाना गलत है। यही कारण है कि अनेक बुनियादी क्षेत्रों में सशक्त नीतियों की कमी के चलते प्रगति बाधित हुई है।
- संशोधन विधेयक के तहत, इरादे की दुर्भावना या आपराधिक चाल-चलन के लिए पहले के पाँच फॉर्म की तुलना में दो फॉर्म रखे गए हैं। इसके अंतर्गत एक प्रशासनिक सेवक को सम्पत्ति के दुरूपयोग और अवैध रूप से इकट्ठी की गई सम्पत्ति के लिए दोषी ठहराया जा सता है।
- रिश्वत लेने के अपराध की सजा को अधिकतम सात वर्ष कर दिया गया है। रिश्वत देने वाले को भी अपराधी माना जाएगा, बशर्ते उसे मजबूर न किया गया हो। अगर किसी को रिश्वत देने के लिए मजबूर किया जा रहा है, तो उसे सात दिन के अंदर अपनी रिपोर्ट लिखवानी होगी।
- विधेयक के भाग 17ए के अनुसार किसी अधिकारी को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ने की स्थिति में, उससे संबंद्ध वरिष्ठ अधिकारी की सम्मति के बिना उस पर कार्यवाही नहीं की जा सकती।
संशोधन से पूर्व इस प्रकार की सुरक्षा संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के अधिकारियों को प्राप्त थी। अब यह सुरक्षा सभी स्तर के अधिकारियों के साथ-साथ सेवानिवृत्त अधिकारियों को भी प्राप्त रहेगी।
- विधेयक में पहली बार व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भी कटघरे में लिया गया है। अगर कोई प्रतिष्ठान किसी सरकारी अधिकारी को किसी प्रकार के लाभ का लालच देकर कोई हित साधना चाहता है, तो उसे अपराध मानकर दण्ड दिया जा सकता है।
- भाग 18ए में, गलत तरीकों से अर्जित की गई सम्पत्ति को जब्त करने का भी प्रावधान है।
- विधेयक में भ्रष्टाचार के मामलों को अधिकतम 2 वर्ष में निपटाने की भी व्यवस्था की गई है।
उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में आदेश दिया है कि किसी उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ, भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह के बिना आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए। प्रशासनिक सेवकों को भी इसी प्रकार की सुरक्षा मिलनी चाहिए। ये संशोधन इसी भावना से प्रेरित हैं। उम्मीद की जा सकती है कि यह विधेयक प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति कानूनी कार्यवाही करने में अति और उदासीनता के बीच एक संतुलन स्थापित कर सकेगा।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अमिताभ कांत के लेख पर आधारित। 2 अगस्त, 2018