भारत की ऊर्जा जरूरतें और कार्बन-उत्सर्जन

Afeias
06 Nov 2019
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Date:06-11-19

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संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन पर लैक्चर देने वाली 16 वर्षीय स्वीडिश लड़की ग्रेटा और उसके दोस्त यह मानते हैं कि उन्हें हम जैसे तेल और कोयले के उद्योगों को बढ़ावा देने वाले विनाशकारी लोगों से दुनिया को बचाना है।

इस संदर्भ में भारत के कोयला सचिव के उस बयान से उन्हें झटका लग सकता है कि हमें 600 करोड़ टन प्रतिवर्ष कोयला उत्पादन को सौ अरब टन तक ले जाने की आवश्यकता है। तभी हम बढ़ती ऊर्जा की मांग को पूरा कर सकेंगे।

भारत एक निम्न-मध्यम आय वाला देश है। वहीं स्वीडन अमीर देशों में से एक है। ‘हरित क्रांति‘ का बिगुल बजने के बाद भी स्वीडन का वार्षिक प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 4.5 मीट्रिक टन है, जबकि भारत का 1.7 मीट्रिक टन।

तेल और कोयले के उत्पादन को रोकने वाले कार्यकर्ता दरअसल पाखंडी हैं। पवन और सौर ऊर्जा पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता, क्योंकि ये दोनों ही प्रकार के साधन पूरे वर्ष में शायद 25 प्रतिशत ही उपलब्ध हो पाते हैं। बाकी के समय में भारत के लिए कोयलाजनित बिजली से ही काम चलता है। आगे चलकर शायद विद्युत स्टोरेज तकनीक से स्थिति में परिवर्तन आए। परन्तु फिलहाल तो भारत को थर्मल पॉवर के लिए बहुत सी कोयला खानों की आवश्यकता है।

वर्तमान में होने वाला कार्बन उत्सर्जन तो नाममात्र का कहा जा सकता है। औद्योगिक क्रांति के बाद से होने वाला 90 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन पश्चिमी अमीर देशों और जापान की देन है।

अर्थशास्त्री कीरीत पारेख ने एक बार भारत की नीति की व्याख्या करते हुए कहा था कि, ‘‘हम पश्चिमी देशों से अधिक कार्बन उत्सर्जन नहीं करेंगे।’’ इसका अर्थ है कि भारत अपनी कार्बन-उत्सर्जन सीमा को छः गुना बढ़ा सकता है। मोदी सरकार ने नवीनीकृत ऊर्जा का बहुत विस्तार किया है। इसके बावजूद भारत को कोयले का आधार चाहिए। अगर पश्चिमी देश कोयला आधारित ऊर्जा तकनीक को व्यावहारिक बनाने पर काम करें, तो भारत इसे अपनाने को तैयार है।

सबसे ज्यादा कार्बन-उत्सर्जन करने वाले देश तेल का उत्पादन करने वाली एवं द्विपीय ;प्संदकेद्ध अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनमें कतर सबसे ऊपर है। औद्योगिक देशों में अमेरिका सबसे ऊपर है। आस्ट्रेलिया, रशिया, कनाडा, जापान और जर्मनी इसके बाद आते हैं।

कोल इंडिया लिमिटेड तो तीसरे दर्जे का उत्पादक है। भारत सरकार के नवीनीकृत ऊर्जा के बढ़े-चढ़े दावे के बाद भी 2018 में भारत का कोयला आयात रिकार्ड स्तर पर बढ़कर 172 करोड़ टन हो गया है। इसका कारण समझ से परे है, क्योंकि भारत में तो स्वयं ही विश्व में कोयले का तीसरा सबसे बड़ा भंडार है।

भारत ने 1970 में इस विश्वास के साथ कोयला उत्पादन का राष्ट्रीयकरण किया था कि सार्वजनिक क्षेत्र इसका अनुकूलन करेगा। यह सफल नहीं रहा। भारत की खदानों से प्रति श्रमिक 0.8 टन प्रति शिफ्ट उत्पादन का गिरा हुआ औसत आता है। आस्ट्रेलिया में यह 40 टन का औसत है। भारत ने समय के साथ अपने औसत में सुधार किया है। फिर भी 2017-18 यह आस्ट्रेलिया के 75 टन की तुलना में 16.6 टन ही है।

राजनीतिक दलों ने धीरे-धीरे कोल इंडिया के एकाधिकार छीने हैं। पहले निजी उत्पादन की अनुमति थी। गत वर्ष पूर्ण वाणिज्यिक खनन की अनुमति दी गई थी। लेकिन कोई नीलामी नहीं हुई। इससे पहले, विदेशी कंपनियों को कोयले में केवल 25 प्रतिशत की भागीदारी दी जाती थी। परन्तु अगस्त 2019 से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 100 प्रतिशत की अनुमति दे दी गई।

वैश्विक स्तर पर सक्रिय निवेशकों और गैर सरकारी संगठनों के निशाने पर अनेक कोयला खनन मालिक हैं। इसलिए वे अपनी कोयला खानें बेच रहे हैं। विश्व बैंक व अन्य फाइनेंसर कोयला खदानों को फाइनेंस नहीं करेंगे। लेकिन भारतीय बैंक करेंगे। भारत में आगामी एक या दो दशक तक कोयला खनन का भविष्य उज्जवल है।

अभी भी देर नहीं हुई है। पर्यावरण एवं जनजातीय स्वीकृति आदि के बाद योजनाओं को शुरू किया जाना चाहिए, ताकि वे बीच में रुकें नहीं। इसके लिए पूरी पारिस्थितिकी में परिवर्तन की आवश्यकता है। भारत भले ही एक दिन विश्व में सौर ऊर्जा का केन्द्र बन जाए, परन्तु उसे थर्मल पावर में भी मजबूती चाहिए ही चाहिए।

‘द टाइम्स  ऑफ  इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित। 13 अक्टूबर, 2019