भारत का सुरक्षा संकट
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पूरे विश्व में भू-स्थानिक राजनीति, कूटनीति और तकनीकी विकास के कारण राष्ट्रों की अपनी सुरक्षा में नए आयाम जुड़ते जाते हैं। एक साल पहले तक अमेरिकी राजनीति में आए परिवर्तन के बारे में किसने सोचा था? किसने सोचा था कि चीन इतनी विशाल आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा? समय के साथ विवादों का स्वरूप और युद्धों के कारण बदलते जा रहे हैं। अब ये साइबर-संसार की ओर बढ़ने लगे हैं। भारत की सुरक्षा की अपनी चुनौतियां हैं। हमारे पास 4,900 कि.मी. की विवादित सीमाएं हैं, और इन्हें घेरे हुए दो ऐसे पड़ोसी जो परमाणु-ऊर्जा से सम्पन्न हैं। साल-दर-साल इन पड़़ोसियों ने एक प्रकार से भारत के विरूद्ध आपस में हाथ मिला लिया है। मई में चीन ने ‘‘वन बेल्ट वन रोड’’ योजना में 29 देशों को शामिल करके इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इस संधि से निश्चित रूप से विश्व के शक्ति-क्रम में एक नया मोड़ आएगा।
पिछले कुछ वर्षों में चीन ने पूरे अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करना शुरू कर दिया है। इसने अक्साई चीन पर तो पहले से कब्जा कर ही रखा है। अभी तक सीमा-विवाद सुलझाने की दिशा में इन पड़ोसियों ने कोई प्रयास नहीं किए हैं, न ही वास्तविक सीमा रेखा को निरूपित करने की कोशिश की है। चीन की भौगोलिक कूटनीति की चुभन भारत के लिए पैनी होती जा रही है। अब आगे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) की सफलता के कारण पाकिस्तान से हमारे संबंधों में बदलाव के साथ ही मध्य-एशिया के अफगानिस्तान जैसे देश से भी हमारे संबंधों में बहुत फर्क आ जाएगा।पाकिस्तान बनने के साथ ही विभाजन के कारण उपजा वैमनस्य आज तक बढ़ता ही आया है। कश्मीर और आतंकवाद उसी की प्रतिक्रिया है। पाकिस्तान में सेना के प्रभुत्व और धार्मिक कट्टरवाद को देखते हुए शांति की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इसके लिए किसी प्रकार की वार्ता काम नहीं आ सकती।
पाकिस्तान से रूबरू होते हुए अब हमें चीन, अमेरिका और रशिया को भी ध्यान में रखना आवश्यक हो गया है। चीन ने पाकिस्तान को सैन्य सामग्री से लादना शुरू कर दिया है। सीपीईसी के साथ ही चीनी संपत्ति और अधिकारियों की सुरक्षा के नाम पर पाकिस्तान में चीनी सेना अधिक संख्या में दिखाई देने लगेगी। जब तक अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप जारी रहेगा, अमेरिका पाकिस्तान को सहायता देता रहेगा। पाकिस्तान-रशिया की बढ़ती सैन्य मिलनसारिता के बाद अब भारत रशिया पर पूरा भरोसा नहीं कर सकता। बात केवल पाकिस्तान की ही नहीं है। ‘‘वन बेल्ट वन रोड’’ के माध्यम से चीन ने हमारे सभी पड़ोसी देशों को एक तरह से अपने साथ मिला लिया है। अब वह सार्क में भी प्रवेश पाने का प्रयत्न करेगा। ऐसा लगता है कि कुछ समय बाद हिंद महासागर में चीनी नौसेना की घुसपैठ दिखाई देने लगेगी।
आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में भी भारत में अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। बढ़ती बेरोजगारी, जाति-संप्रदायगत वैमनस्यता, राज्य-केन्द्र मतभेद एवं प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक मुद्दे का राजनीतिकरण करने की प्रवृत्ति ने कानून-व्यवस्था में झोल डाल दिया है। राष्ट्रीय सुरक्षा पर भेदभाव वाली राजनीति के परिणामस्वरूप सुरक्षा बलों पर कटाक्ष करते रहना अब आम हो गया है। राजनीतिक संस्थाओं और उनके नेताओं का अपमान होता रहता है। इन सबसे लंबे समय से चले आ रहे सुरक्षा बलों के दृढ़ मूल्यों का हृास हो रहा है। नतीजतन आम नागरिकों एवं सुरक्षा बलों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। इन स्थितियों के पीछे राजनीतिक दलों की सुर्खियों में बने रहने की चाह ही मुख्य कारण है। इसके लिए चाहे कानून-व्यवस्था या संवैधानिक मूल्यों को दांव पर ही क्यों न लगाना पड़े, वे पीछे नहीं हटते। ऐसा करने से राष्ट्रीय सुरक्षा को गहरा खतरा पहुँच सकता है।पिछले कुछ वर्षों में साइबर एवं अंतरिक्ष से जुड़ी सुरक्षा-व्यवस्था में भी सेंध लगाई जा रही है। सरकार का समस्त नियंत्रण तो इन्हीं दोनों पर निर्भर करता है। अब सेना के साइबर युद्ध से जुड़े किसी भी कार्य को राष्ट्रीय सूचना बोर्ड की निगरानी में ही किया जाना चाहिए।भारत के लिए हाल ही में प्रकट हुई कुछ भिन्न प्रकार की रक्षा चुनौतियां तीन प्रकार की हैं। (1) हमारे शासक वर्ग में कूटनीतिक और सुरक्षा जागरुकता का अभाव, (2) राष्ट्रीय सुरक्षा पर पक्षपातपूर्ण राजनीति के चलते सुरक्षा बलों पर कटाक्ष करना तथा (3) भारत का रक्षा-प्रबंधन।
भारत के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति एवं हमारी सेना के उच्च अधिकारी भी सामरिक संस्कृति को नहीं अपना पाए हैं। हमारी सरकार किसी प्रकार की कूटनीतिक दूरदर्शिता, रूचि या सुरक्षा नीतियों पर काम करती दिखाई नहीं देती। हमारे नेता दूरगामी कूटनीति या सुरक्षा नीतियों पर बात करने की बजाय आडंबरपूर्ण और भावनापूर्ण भाषणों तक सीमित रहते हैं। हमारे अधिकांश राजनेताओं का ध्यान अगले चुनावों की तैयारी तथा बजट और वोट-बैंक तक ही रहता है। कूटनीतिक स्तर पर काम करने के लिए दूरदर्शिता और अच्छी याददाश्त की आवश्यकता होती है। जब इन सब बातों का अभाव है, तो निर्णय भी आधे-अधूरे ही रहेंगे।हमारे रक्षा-प्रबंधन में अनेक खामियां हैं। रक्षा मंत्रालय की कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। कारगिल युद्ध के समय से ही ‘संयुक्त सुरक्षा सेवाओं’ की नियुक्ति की बात की जा रही है। कारगिल रिव्यू समिति ने इसकी सिफारिश की थी, परन्तु अभी तक इसे अमल में नहीं लाया जा सका है।
हमारे सैन्य बलों की तीनों शाखाओं में आपसी तालमेल एवं अंतर-सेवाओं को बढ़ावा देने की जरूरत है। सरकारी अनदेखी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के इस महत्वपूर्ण पक्ष पर मिट्टी डाल दी है।कोई भी देश तब तक बड़ी शक्ति नहीं बन सकता, जब तक कि वह खुद में भारी-भरकम सैन्य-सामग्री का बड़ी संख्या में उत्पादन करने की क्षमता न रखता हो। शुक्र है कि 2016 से हमारे पास रक्षा सौदों से जुड़ा एक वृहद् कार्यक्रम तैयार है। इससे निजी क्षेत्र भी मैदान में आ सकेगा। फिर भी ऐसा लगता है कि हमारी सेनाओं को कुछ सीमा तक आधुनिक बनाने में कम से कम पन्द्रह-बीस वर्षों का समय लगेगा। बढ़ती क्षेत्रीय असुरक्षा को देखते हुए यह दौर अत्यंत कठिन गुजरेगा।
जहाँ तक भविष्य पर नजर जाती है, ऐसा लगता नहीं कि चीन और पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर युद्ध होगा। परन्तु सीमा पर चलने वाली झड़पें और छोटे-मोटे विवादों में बढ़ोत्तरी जरूर हुई है। दो देशों के बीच होने वाले इस प्रकार के विवाद कभी भी सैन्य विजय या राष्ट्रीय सीमाओं में परिवर्तनों के लिए नहीं किए जाते, बल्कि इनके पीछे राजनीतिक कारण होते हैं।निष्कर्ष के तौर पर कहें तो भारत की सुरक्षा को किसी युद्ध की चुनौती नहीं है, लेकिन जो चुनौतियां हैं, वे काफी दूर तक फैली हुई और अस्पष्ट हैं। भारत की सीमाओं की सुरक्षा से ज्यादा अहम् हमारी आंतरिक सुरक्षा की चिन्ता है। खस्ताहाल संस्थाएं, खराब प्रशासन, राजनीतिक, सामाजिक और मूल्यगत मतभेद एवं कूटनीतिक दृष्टि और सोच की कमी ऐसी कमजोरियां हैं, जिनके दुरूस्त होने पर हम हर बाहरी शक्ति का मुकाबला करने में सक्षम हो जाएंगे।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित वी.पी.मलिक के लेख पर आधारित।