भारत का स्कूली शिक्षा संकट

Afeias
13 Jul 2017
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Date:13-07-17

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हमारे देश में शिक्षा का स्तर बहुत खराब है। पिछले वर्ष सार्वजनिक मुद्दों को लक्ष्य करके चलने वाले अमेरिकी शोध संस्थान ने 90 देशों में शिक्षा के सर्वेक्षण के बाद भारत की शिक्षा के बारे में जो तथ्य बताए हैं, वे सब चेताने वाले हैं। इस संस्थान पी ई डब्ल्यू ने यूनेस्को के मानदण्डों के आधार पर यह सर्वेक्षण किया था।

  • इस अध्ययन में शिक्षा प्राप्ति को धर्मों के आधार पर देखा गया था। सर्वेक्षण में बताया गया कि पूरे विश्व के धर्मों में हिन्दू सबसे कम शिक्षा प्राप्त हैं। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय स्कूली शिक्षा सबसे निचले स्तर पर कही जा सकती है।
  • एक अन्य चैंकाने वाला तथ्य यह है कि यूरोप में मापदण्ड का आधार बने पीसा के अनुसार 110 देशों के शिक्षा सर्वेक्षण में भारत का स्थान केवल कजाकिस्तान से ऊपर रहा था। भारत ने इस संस्था से आगे के लिए अपने को अलग कर लिया, लेकिन वी पीईडब्ल्यू पर प्रतिबंध नहीं लगा पाया। नतीजा हमारे सामने है।
  • भारत के ही एक गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ के अनुसार भारत में पाँचवी और आठवीं के बच्चे कक्षा दो की किताबें भी नहीं पढ़ पाते हैं। 2015 में राष्ट्रीय स्तर पर किए गए सर्वेक्षण के अनुसार माध्यमिक विद्यालय के बच्चों के गणित, विज्ञान एवं अंग्रेजी के ज्ञान में बहुत गिरावट आई है। राजधानी दिल्ली के 54 प्रतिशत बच्चे मुश्किल से एक वाक्य पढ़ पाते हैं।
  • पूरे विश्व में भारतीय बच्चों को अच्छा विद्यार्थी माना जाता है। पीईडब्ल्यू के अनुसार अमेरिका में बसे भारतीय उच्च शिक्षित वर्ग में गिने जाते हैं। यह जानकर ऐसा लगता है कि सुशासन की कमी से भारतीय शिक्षा इतनी पीछे चल रही है।
  • समस्या का मुख्य कारण प्रशासन की गुणवत्ता का है। स्कूली प्रशासन में भी राजनीति घुसी हुई है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों का पूरा ध्यान मंत्रियों, सचिवों एवं शिक्षा की नियामक संस्थाओं पर रहता है। इसमें विद्यार्थी, शिक्षक एवं विद्यालय की कोई जगह नहीं होती।
  • हमारा शिक्षातंत्र सबको साथ लेकर चलने वाला नहीं है। समाज के कमजोर वर्ग को इसमें उचित स्थान नहीं मिल पाता है। सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों की ई डब्ल्यू एस कैटगरी की शर्त को कभी पूरा नहीं किया जाता। शिक्षा के अधिकार से संबंधित बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है।
  • शिक्षा का पाठ्यक्रम सदियों पुराना और घिसा-पिटा है, जिसका व्यावहारिक जीवन में कोई संबंध नहीं है। शिक्षकों के प्रशिक्षण और स्कूल प्रबंधन की हालत बहुत खराब है।

सवाल उठता है कि क्या शिक्षा जगत के मंत्री, नौकरशाह और अन्य अधिकारी इन स्कूली समस्याओं या उसके गिरते स्तर से वाकिफ नहीं हैं? सच्चाई यह है कि इनमें से बहुत कम लोग समस्या को जानना व समझना चाहते हैं। ये सब लोग शिक्षा विभाग से एक अस्थायी सा संबंध मानते हैं और इसकी समस्या की जड़ों तक यही सोचकर पहुंचने की कोशिश नहीं करते कि क्या पता कब तक उन्हें यहाँ रहना है। बंद कमरों में होने वाले शिक्षा संबंधी सम्मेलनों में केवल औपचारिकता निभाई जाती है। धरातल के स्तर पर कोई काम नहीं होता। विडंबना यह है कि इन सबसे मात खाने वाले बच्चों की कोई नहीं सुनता। उनके अभिभावक एकजुट नहीं हैं। और अगर हो भी जाएं, तो उनके पहुँच धरनों और ज्ञापनों तक ही सीमित होती है। ऐसे में भारत के स्कूली शिक्षा क्षेत्र का रूपांतरण कैसे होगा?

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यम के लेख पर आधारित। लेखक पूर्व कैबिनेट सचिव रह चुके हैं।

 

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