भारतीय राष्ट्रीयता क्या है?
Date:01-09-17
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हाल ही में भारत के पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हमारे राजनैतिक और सांस्कृतिक जगत को शोधित एकांतिकता ने अपने आधिपत्य में ले लिया है। उनका इशारा शायद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी की ओर था। यहाँ जानने वाली बात यह है कि आर एस एस कोई ऐसी नई संस्था नहीं है, जिसकी विचारधारा से देश की जनता अपरिचित हो, और न ही भाजपा कोई ऐसा राजनैतिक दल है, जो पहली बार सत्ता में आया हो।
गैार करने की बात है कि 1967 में भी भाजपा ने सीपीआई के साथ मिलकर सरकार का गठन किया था। ऐसे कई अवसर आए हैं, जब उसने अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई है।
श्री अंसारी का कथन भारत की एकता और उसकी सभ्यता की आधारभूत विचारधारा के विरूद्ध पश्चिम राष्ट्रवाद के विचार से प्रभावित लगता है। भारतीय राष्ट्रीयता का सूत्र ‘‘अथर्ववेद’’ के ‘पृथ्वी सूक्त’ में मिलता है, जो घोषित करता है कि ‘यह धरा हमारी माता है, और हम इसके पुत्र हैं।’ यही कारण है कि भारतीय राष्ट्रीयता को चरमपंथियों ने अपना झूला समझ लिया और मजे से उसमें झूलते रहे।
दूसरे, हमारी संविधान सभा में धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्रीयता को लेकर हुई चर्चाओं की बात भी गौर करने लायक है, क्योंकि यह हमारी राष्ट्रीयता का आधार है और यही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी दृष्टिकोण है। इस संदर्भ में बिहार के ताजमुल हुसैन के शब्द गौर करने लायक हैं। उन्होंने कहा था कि ‘भारत के संदर्भ में अल्पसंख्यक की अवधारणा अनुचित है, क्योंकि भारतीय इतिहास में बहुसंख्यक वर्ग ने कभी अत्याचार नहीं किया है।’
इसी प्रकार संविधान सभा के उप सभापति एच.सी.मुखर्जी ने भी चेतावनी दी थी कि ‘धर्म के नाम पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देना, ‘‘एक जन, एक राष्ट्र’’ की भावना पर आघात करना होगा।’ परन्तु स्व्तंत्रता के पश्चात् भारतीय राजनीति ने ‘‘एक जन, एक राष्ट्र’’ के सिद्धांत की उपेक्षा करते हुए पश्चिमी परिभाषाओं एवं अनुभवों को अपनाना प्रारंभ कर दिया।
अनेकता या बहुलवाद के नाम पर मिलने वाले विशेषाधिकारों का केवल लाभ उठाकर धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्रीयता की रक्षा नहीं की जा सकती। इसकी रक्षा तभी की जा सकती है, जब प्रत्येक समुदाय बराबर से नवीनता एवं बहुसंस्कृतिवाद के विचार को सुदृढ़ करने के लिए तैयार खड़ा हो। मुस्लिम आक्रमणों के दौरान हिन्दुओं ने भी असहिष्णुता सही है। सांस्कृतिक राष्ट्रीयता तो अनेकता में एकता को प्रोत्साहित करने वाले प्रजातंत्र पर आधारित है। वह इसकी राह में रोड़ा नहीं है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से पहले भी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की विचारधारा के अनेक समर्थक रहे हैं, जिनमें अरविंद घोष, बी.सी.पाल, बाल गंगाधर तिलक तथा लाला लाजपत राय आदि थे। आधुनिक भारत के सूत्र कहीं-न-कहीं हमारे प्रगतिवादी प्राचीन इतिहास एवं सांस्कृतिक-बौद्धिक विरासत से जुड़े हैं। सन् 1948 में अलीगढ में नेहरूजी द्वारा दिए गए एक भाषण में भी ऐसी ही झलक दिखाई पड़ती है। उन्होंने कहा था-‘‘मैं अपने पूर्वजों के लिए गौरवान्वित महसूस करता हूँ, जिन्होंने भारत को सांस्कृतिक एवं बौद्धिक प्रतिष्ठा दी। क्या आपको लगता है कि आप भी इसका हिस्सा हैं और यह आपका भी उतना ही है, जितना कि मेरा है। या फिर आप इससे बेगाना महसूस करते हैं?’’
स्वतंत्रता के बाद धीरे-धीरे भारत के मुस्लिम बौद्धिक वर्ग ने नेहरूजी द्वारा उठाए प्रश्नों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया। उन्होंने ताजमुल हुसैन जैसे नेताओं की भूमिका को अल्पसंख्यकों के अधिकारों का विनाशक बताना शुरू कर दिया। हामिद अंसारी जैसे लोग बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक के भेद के अधीन जीने वाले लोग हैं। वे इसी को धर्मनिरपेक्षता के लिए अनिवार्य मानते हैं, जबकि आरएसएस हमारे राष्ट्र के इतिहास को ध्यान में रखते हुए इस भेद को अपमानजनक मानता है। यहाँ कार्लटन हे के विचार उद्धृत किए जा सकते हैं कि ‘किसी राष्ट्र को उसकी छाप, उसका चरित्र, उसकी वैयक्तिकता उसकी अपनी सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक ताकतों से मिलती है।’ अतः भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अनुदार कहना वर्षों से एकत्रित किए गए उसके मूल्यों का अवमूल्यन करना है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित राकेश सिन्हा के लेख पर आधारित।