बढ़ती जनसंख्या के विविध आयाम

Afeias
08 Aug 2017
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Date:08-08-17

 

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संयुक्त राष्ट्र ने 11 जुलाई को ‘‘विश्व जनसंख्या दिवस’’ मनाने का निर्णय कर रखा है। इस वर्ष इसके माध्यम से परिवार नियोजन को मिशन बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2024 तक भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाएगी। यह जनसंख्या का एक पक्ष है। दूसरी ओर, हम अगर बढ़ती जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए अभी से अपनी नीतियों को विस्तार देना शुरू कर दें, तो हमें अपनी जनता को एक स्वस्थ, सम्पन्न जीवन देने से कोई नहीं रोक सकता।

  • बढ़ती जनसंख्या के साथ हमें आगे आने वाले कुछ वर्षों की विकास नीतियों को जनसंख्या के बढ़ते अनुपात के हिसाब से रखना होगा। चाहे हमारी प्रतिव्यक्ति जरूरतें उतनी न बढ़ें, परन्तु हमारी दूरदर्शिता इसी में है कि हमारी नीतियां दूरगामी हों। हम आज ही देखते हैं कि कई क्षेत्रों में ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो रहा है। अगर हम महाविद्यालयों में प्रवेश प्रक्रिया की ही बात लें, तो पाते हैं कि उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पास करने वाले बच्चों की तुलना में उच्च शिक्षा में सीटें बहुत कम हैं। यही कारण है कि विद्यार्थी भटकते रह जाते हैं या गलत चक्करों में फंस जाते हैं।
  • विकास के हर क्षेत्र; चाहे वह अस्पताल, घर, स्कूल, कॉलेज, प्रशिक्षण संस्थान, पुलिस या जलापूर्ति कुछ भी हो, सब में निवेश की मात्रा को बढ़ाना होगा। यह केवल आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उम्र, शिक्षा, लिंग, आय, भौगोलिक क्षेत्र आदि के अनुसार इन साधनों को हर एक तक पहुंचाया जा सके।
  • हमारी जनसंख्या में उम्र के हिसाब से अगर साधनों की पहुंच की बात करें, तो हम अपने को सौभाग्यशाली मान सकते हैं। हमारी जन्म दर घट रही है और बुजुर्ग जनसंख्या भी युवाओं की तुलना में कम है। परन्तु इन युवाओं के लिए पर्याप्त कौशल विकास केन्द्र एवं रोजगार की कमी के कारण इनमें से बहुत से असामाजिक गतिविधियों में लिप्त हो रहे हैं।
  • हमारी जनसंख्या के विशाल आकार को हमें अपनी उन्नति के रूप में दर्शाना होगा। परंतु राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय रूप से ऐसा करने के लिए क्या हम अपनी क्षमता में वृद्धि कर रहे हैं? क्या हम प्राकृतिक संसाधनों की पुनः पूर्ति करने से पहले ही उनका भरपूर उपयोग कर रहे है? ऐसे सवाल किए जाने चाहिए; परन्तु हमारे नीति-निर्माता इनको ‘नजरंदाज’ करते हैं। अगर इन सवालों पर ध्यान देकर नीतियां बनाने की शुरूआत की भी जाती है, तो उसका शिकार समाज के गरीब, कमजोर और पहले से ही दमित स्त्री वर्ग होता है। जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासांे का घिनौना उदाहरण असम और छत्तीसगढ़ हैं। छत्तीसगढ़ में तो महिला नसबंदी कैंप में अनेक महिलाओं की मृत्यु हो चुकी है।
  • जनसंख्या-नियंत्रण से पहले बढ़ती जनसंख्या के साथ गरीब और अमीर वर्ग के बीच उपलब्ध साधनों के उपभोग की असमानता को समझना और उस पर कार्यवाही करना अधिक आवश्यक है। इसके साथ ही लड़कियों को शिक्षा और औरतों को स्वेच्छा से गर्भनिरोधक के उपयोग का अधिकार देना भी जरूरी है। अगर स्त्री शिक्षित होगी, तो अधिक बच्चे पैदा करने के सामाजिक और आर्थिक कारण ही बेमानी हो जाएंगे। इस तरह जनसंख्या वृद्धि में कमी आएगी।
  • अपनी कौम की संख्या को बढ़ाने वाली मध्ययुगीन विचारधारा भी जनसंख्या वृद्धि का बहुत बड़ा कारण है। प्रत्येक समुदाय दूसरे से अधिक अपनी संख्या देखना चाहता है, क्योंकि इसे वे अपनी शक्ति मानते हैं। ज्ञान और तकनीक के युग में ऐसी सोच शर्मनाक है। एक बार फिर से बात घूम-फिरकर स्त्री अधिकारों पर आ जाती है कि अगर उसे गर्भधारण संबंधी अधिकार दे दिए जाएं, तो यह समस्या खत्म हो जाएगी।

यदि विश्व के इतिहास और वर्तमान विश्व को देखा जाए, तो जन्म से जुड़े अनेक आदेश स्त्रियों के लिए अत्याचारी सिद्ध होते रहे हैं। नाजियों ने जर्मनी में आर्य स्त्रियों को गर्भनिरोध के उपयोग एवं गर्भपात के अधिकार से वंचित कर रखा था। हाल ही में तुर्की के राष्ट्रपति ने पश्चिम में प्रवासी के तौर पर रहने वाली अपनी जनता से अधिक से अधिक जनसंख्या वृद्धि का आह्वान किया है।

जनसंख्या की दृष्टिसे ये नकारात्मक उदाहरण कहे जा सकते हैं। इस स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए औरतों को गर्भधारण के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार देने से ही समस्या का समाधान मिल सकेगा।

हिन्दू में प्रकाशित अलाका एम. बसु के लेख पर आधारित।