बढ़ती आर्थिक असमानता ही जड़ है
Date:11-02-20 To Download Click Here.
मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में गरीबी बढ़ने का अनुमान इस आधार पर लगाया जा रहा है कि लोगों की व्यय करने की क्षमता औसतन कम हो गई है। इसके साथ ही कुछ अटकलें भी लगाई जा रही है; जैसे वेतन वृद्धि दर में कमी, उपज के दामों का गिरना, और तेजी से बढ़ती बेरोज़गारी।
थॉमस पिकेटी के दृष्टिकोण से अगर प्रति व्यक्ति व्यय के गिरने के कारणों को समझा जाए, तो इसके निष्कर्ष अलग ही निकलते हैं। 2017 में आए उनके एक लेख में उन्होंने स्पष्ट किया है कि देश के 1% उच्च आय वालों की आय इस समय चरम पर है। इसका कारण टॉप मार्जिनल कर की दर में कमी, तथा एक अस्थायी व्यावसायिक वातावरण तैयार करना है।
2005-12 तक के मानव विकास सर्वेक्षण डेटा पर आधारित रिपोर्ट से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि औसत प्रति व्यक्ति खपत पर व्यय जितना अधिक होता है, उतना ही हेड काउंट अनुपात या गरीबी कम होती है। अब अगर व्यय कम है, तो स्पष्ट है कि गरीबी अधिक होगी।
इस निष्कर्ष के ठीक विरूद्ध पिकेटी का विश्लेषण कहता है कि असमानता जितनी अधिक होगी, गरीबी भी उतनी अधिक होगी।
यहाँ यह जानना आवश्यक है कि असमानता को बढ़ाने वाले कुछ कारक गलत हो सकते हैं, तो कुछ सही। इसके लिए 18 वीं शताब्दी के मध्य में हुई औद्योगिक और स्वास्थ्य क्रांति का उदाहरण लिया जा सकता है। इस क्रांति के चलते पूरे विश्व में करोड़ों लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठ गया। इससे जन्मी असमानता अच्छी थी। इसके उलट, कुछ विशेष हितों के लिए सरकार को रिश्वत देकर अपना विकास करना गलत है।
2018 की वैश्विक संपत्ति रिपोर्ट कहती है कि विश्व के 6% संपत्ति वृद्धि दर की तुलना में भारत में 9.2% की दर से संपत्ति बढ़ी है। जबकि जनसंख्या 2.2% प्रतिवर्ष के अनुपात से बढ़ी है। वैश्विक धन में वृद्धि से इक्विटी बाजारों में व्यापक लाभ और गैर- वित्तीय परिसंपत्तियों में समान वृद्धि हुई। इनका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। यहाँ बाज़ार पूंजी में 30% , घरों की कीमतों में लगभग 10% और डॉलर के मुकाबले रुपये में 4% की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि सबके लिए नहीं थी। 92% भारतीयों के पास 10,000 डॉलर से कम धन था।
वैश्वीकरण और तकनीकी परिवर्तनों ने आर्थिक परिदृश्य में बहुत बदलाव किए। परंतु ऐसा नहीं कि इस व्यवस्था में केवल उच्च वर्ग के लिए स्थान था। आखिर करोड़पतियों की संख्या बढ़ने के साथ गरीबी क्यों बढ़ने लगी ? उनकी अमीरी के पीछे संपत्ति और स्टॉक मार्केट में उछाल हैं। ये दोनों ही क्षेत्र रोज़गार के अवसर नहीं दे सके। इससे भी बदतर स्थिति तब हुई, जब यह लाभ सीढ़ी के नीचे पायदान के लोगों की कीमत पर अर्जित किया गया।
जब बाज़ारों की चाल बिगड़ती है, तो निवेश के अवसरों का आवंटन प्रभावित होता है। इसके लिए बाज़ारों में सुधार किया जाना चाहिए। जहां यह संभव नहीं है, वहां सेवाओं, परिसंपत्तियों या राजनीतिक प्रभाव के पुनर्वितरण से दक्षता को बढ़ाया जा सकता है। अतः प्रति व्यक्ति के उपभोग में कमी को गरीबी में वृद्धि से जोड़कर देखना अतिशयोक्ति होगी। समावेशी विकास को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स‘ में प्रकाशित वर्षा एस कुलकर्णी और राघव गहिया के लेख पर आधारित। 21 जनवरी, 2020