
‘परोक्ष इच्छा-मृत्यु’ या ‘लिविंग विल’ पर मुहर
Date:05-04-18
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अभी तक मरीज के जीवन और मृत्यु के बारे में निर्णय लेना डॉक्टर का काम होता था। उन्हें यही शिक्षा दी जाती है कि वे किसी भी स्थिति में प्रयास न छोडे़। मरीज की मृत्यु को उन्हें अपनी हार के रूप में देखना सिखाया जाता है। वे मृत्युशैय्या पर पड़े मरीज पर भी आधुनिकतम तकनीक एवं दवाओं का प्रयोग पर प्रयोग करते चले जाते हैं। चाहे ये तकनीक मरीज की गरिमा का भी उल्लंघन करती हो। इन स्थितियों में चिकित्सक मरीज के परिवारजनों की भी कम सुनते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने ‘परोक्ष इच्छा-मृत्यु‘ को मान्य ठहराकर मरीज, परिवारजनों एवं चिकित्सक के द्वंद को समाप्त कर दिया है। कोई भी कानूनी रूप से वयस्क व्यक्ति अपने होशोहवास में एक ऐसी वसीयत बना सकता है कि समय आने पर उसकी पीड़ा की अवधि को लंबा करने वाले लाइफ सपोर्ट सिस्टम का उपयोग न किया जाए। इस प्रकार की वसीयत के लिए कानूनी मंजूरी लिया जाना आवश्यक है।
विशेष बातें –
- न्यायालय ने अत्यंत सावधानी बरतते हुए इसे आत्महत्या, चिकित्सा की सहायता से की जाने वाली जीवन की समाप्ति और यूथनेसिया से अलग रखा है।
- इसके अंतर्गत मरीज द्वारा अपने जीवन के लिए पहले से ही लिए गए निर्णय को मान्य समझकर उसका आदर किया जाएगा।
- एक मेडिकल बोर्ड होगा, जो मरीज के उपचार की सार्थकता और लिविंग विल पर सभी तरह से विचार करेगा।
- मरीज की इस अपील का न्यायिक पुनरावलोकन किया जाएगा।
अरूणा शानबाग के मामले में वर्ष 2011 में उच्चतम न्यायालय ने जीवन-सहयोग तंत्र (लाइफ सपोर्ट सिस्टम) हटाकर किसी मरीज को परोक्ष इच्छा-मृत्यु देने की स्वीकृति हेतु कुछ दिशानिर्देश दिए थे। इसके अंतर्गत मरीज का यह निर्णय पति या पत्नी, परिवारजन या किसी घनिष्ठ मित्र के पास रखा जाना चाहिए। अब उच्चतम न्यायालय को चाहिए कि वह अपने उस निर्णय को कायम रखे।
अरूणा शानबाग जैसे मामलों में पीड़ित को ऐसे कष्टदायक भविष्य की कल्पना नहीं होती। अतः अब प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को अपनी संतुलित और स्वस्थ मानसिक व शारीरिक अवस्था में ही एक ‘लिविंग विल‘ तैयार करके रखनी चाहिए, जिससे उसे समय आने पर गरिमापूर्ण मृत्यु प्रदान की जा सके।
‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित के. श्रीनाथ रेड्डी के लेख पर आधारित।