नुकसान में चल रहे बैंकों के लिए ठोस नीतियों का अभाव
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सन् 1991 से पहले का दौर ऐसा था, जब हमारी अर्थव्यवस्था सिमटी हुई थी और सब कुछ नियंत्रण में था। उदारीकरण के दौर के साथ अर्थव्यवस्था विकसित हुई। सन् 2000 तक हमारा सकल घरेलू उत्पाद लगभग दुगुना हो गया। सन् 2008 तक व्यापार में बहुत प्रगति हुई। इसके बाद ऐसा दौर आया, जब बाजार मंदी की तरफ जाने लगा। व्यापार ठप्प होने लगे। इस बदलती अर्थव्यवस्था का सीधा संबंध बैकों से रहा और हमेशा रहेगा। यहाँ सवाल यह है कि बदलती अर्थव्यवस्था के साथ क्या हमने अपने बैंकों के प्रबंधन में बदलाव किया? ऐसा लगता नहीं है। हमारे बैंक-प्रबंधन और नीतियों में क्या कमियां हैं, और उन्हें कैसे ठीक किया जा सकता है?
हमारे बैंको की समस्यायें
- हमारे व्यावसायिक क्षेत्र द्वारा ऋण लेने की दर लगातार कम होती जा रही है। निवेश को बढ़ाने के लिए ऋण-दर में वृद्धि होनी बहुत जरूरी है। अगर ऋण लेने में कमी का कारण मांग की कमी है, तो इसे खपत में वृद्धि करके बढ़ाया जा सकता है। परंतु अगर यह गैर-निष्पादित संपत्ति के कारण है, तो इसे बढ़ाना संभव नहीं है।
- उद्योगों में तो उदारीकरण देखने में आता है, परंतु उससे जुड़े बैंकिंग क्षेत्र में इसका अभाव है। समस्या यह है कि हमारी सरकार के अपने बैंक तो हैं ही, निजी क्षेत्र के बैंकों पर भी सरकारी नियंत्रण है। सरकार ही बैंकों को वरीयता के आधार ऋण देने के लिए दिशा-निर्देश देती है।
- बैंकों को अपने डूबे हुए ऋण को संभालने की भी समझ नहीं है। लेकिन हमारे यहाँ बैंक को बंद करने के लिए कोई उचित प्रणाली नहीं है। हानि में चल रहे बैंकों का हम मजबूत बैंकों के साथ विलय कर देते हैं। ऐसा करके मजबूत बैंक को भी कमजोर बना देते हैं।
- बैंकिंग क्षेत्र को संभालने के लिए क्या किया जाए?
- निजी बैंक तो लाभ के लिए बैंकिंग करते हैं। अगर वे हानि उठाते हैं, तो बंद हो जाते हैं या अन्य पूँजीधारी बैंकों द्वारा अधिगृहित कर लिए जाते हैं।जबकि सरकारी बैंक या सरकारी नियं`1त्रण वाले बैंक डूबने पर भी बंद नहीं होते। सरकार उन्हें बनाये रखने के लिए पूंजी देती है। यानी कि करदाताओं की पूंजी उसमें लगती है।बैंकों को बंद करने के लिए उचित प्रणाली स्थापित होनी चाहिए।
- आने वाले वर्षों में बैकिंग क्षेत्र को खतरे से निकालने के लिए आज ही उनके नुकसान को पहचानकर उन्हें सरकारी मदद देकर कामचलाऊ उपाय करने की बजाय सुनियोजित तरीके से उनको बंद करने के लिए कदम उठाना चाहिए।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित इला पटनायक के लेख पर आधारित।
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