नगालैंड में महिला आरक्षण
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नगालैंड की राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है। अब जब वहां की महिलाएं देश के दूसरे हिस्सों की तरह अपने राज्य के स्थानीय निकायों में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण चाहती हैं, और जब उनकी यह संविधान-सम्मत मांग पूरी करने की कोशिश पहली बार राज्य सरकार की तरफ से की गई तो विरोध में समूचा राज्य सुलग उठा और मजबूर होकर सरकार को निकाय-चुनाव रोकने पड़े।
परंपरागत नगा संगठनों का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 234 (टी) के तहत निकाय चुनावों में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देने की जो घोषणा की गई है, वह नगा संस्कृति और परंपरा पर एक प्रहार है। इन संगठनों का मानना है कि नगा रीति-रिवाजों और परंपराओं की रक्षा संविधान के अनुच्छेद 371 (क) के जरिए पहले ही सुनिश्चित की जा चुकी है और महिला आरक्षण का अर्थ उस प्रावधान को चुनौती देना है। जनजातीय संगठनों की अगुआई कर रहे नगा होहो का कहना है कि नगा परंपराओं की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान किया गया है और उस प्रावधान का उल्लंघन किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
नगा समाज के परंपरागत नियमों पर चोट करने वाले किसी भी संसदीय कानून को नगालैंड में लागू न करने का तर्क देकर विभिé संगठन महिला आरक्षण का विरोध करते रहे हैं। इन संगठनों का तर्क है कि शहरी निकायों मेंं महिलाओं के प्रतिनिधित्व का वे विरोध नहीं कर रहे हैं। वे तो केवल महिलाओं के चुनाव लड़ने का विरोध कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि महिलाओं को निकायों मे चुनाव के जरिए नहीं चुना जाए, बल्कि उनको मनोनयन के जरिए निकाय का हिस्सा बनाया जाए।दूसरी तरफ राज्य के महिला संगठन इस आरक्षण के लिए लड़ रहे हैं और उन्होंने ‘नगालैंड मदर्स एसोसिएशन‘ और जॉइंट एक्शन कमेटी फॉर विमेन रिजर्वेशन की अगुवाई में महिलाओं को आरक्षण की मांग के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
वैसे विरोध प्रदर्शन महज़ आरक्षण की वजह से नहीं हो रहा है, बल्कि यह राज्य सरकार की वादाखिलाफी के विरोध में भी हो रहा है। राज्य सरकार ने पहले निकाय चुनावों को दो महीने तक टालने का वचन दिया था, ताकि इस मुद्दे पर सरकार नगा संगठन और महिला संगठन बातचीत कर कोई बीच का रास्ता निकाल सकें। लेकिन राज्य सरकार ने जब दिसंबर 2016 में तैंतीस प्रतिशत महिला आरक्षण के साथ निकाय चुनाव कराने का ऐलान किया, तो ‘नगा होहो‘ सहित तमाम प्रमुख जनजातीय संगठनों ने चुनाव का विरोध करना शुरू कर दिया।
नगालैंड में महिला आरक्षण के खिलाफ जिस तरह का हिंसक विरोध सामने आया है, उससे राज्य की राजनीति में हाशिए पर खड़ी स्त्री की विडंबना भी उजागर हुई है। वर्ष 1964 में राज्य में पहला विधानसभा चुनाव हुआ था और अंतिम चुनाव मार्च 2013 में। इतने सालों में महज पंद्रह महिला प्रत्याशियों ने चुनाव में मुकाबला किया और उनमें से किसी को भी जीत नहीं मिल पाई। राज्य की राजनीतिक पार्टियों की महिला शाखाएं हैं, मगर उनमें शामिल महिलाओं को उम्म़ीदवार नहीं बनाया जाता। अब तक छिटपुट तौर पर चुनावी मुकाबले में भाग लेने वाली महिलाएं निर्दलीय प्रत्याशी ही रही हैं। इससे स्पष्ट होता है कि राजनीतिक पार्टियां नगालैंड में महिलाओं को टिकट देना नहीं चाहतीं।
स्थानीय निकायों में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण के नगालैंड में हो रहे विरोध पर तो देशभर का ध्यान गया है, लेकिन उन्हें परंपरा के नाम पर किस तरह वंचित रखा गया है, इस बात की कोई चर्चा नहीं हो रही है। उन्हें पांरपरिक ग्राम परिषद् में प्रतिनिधित्व का अधिकार नही है, न ही उनके पास भूमि का अधिकार है।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित मोनालिसा चांग्किजा के लेख पर आधारित।