नकारात्मक प्रभाव डालती अमेरिकी अप्रवासी नीति

Afeias
06 Aug 2020
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Date:06-08-20

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हाल ही में अमेरिका ने अपनी अप्रवासी नीति में भारी उलटफेर करते हुए एच-1 बी और विदेशी छात्र वीजा कार्यक्रम में परिवर्तन कर दिया था। इसको लेकर चीन और भारत के नागरिकों में बड़ी हलचल मच गई थी , क्योंकि अमेरिका में चीनी नागरिकों के बाद भारतीयों की सबसे बड़ी तादाद इस प्रकार के वीज़ा पर निवास करती है। हालांकि कुछ समय बाद अमेरिका ने इन नियमों पर नरम रुख अपनाते हुए कुछ तक इसे वापस ले लिया , लेकिन नीतियों में इस प्रकार के असंतुलन का प्रभाव जहां अप्रवासियों पर पड़ता है , वहीं अमेरिका की अपनी अकादमिक और आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है।

अमेरिका को यह नहीं भूलना चाहिए कि वहाँ सालों से आने वाले गणित और विज्ञान के छात्रों ने पेटेंट और नवाचार में झंडे गाड़ दिए हैं। 2018 के अमेरिकी नेशनल साइंस फाउंडेशन के सर्वेक्षण से पता चलता है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों के कम्प्यूटर साइंस, इंजीनियरिंग और गणित विभागों में डॉक्टरेट करने वाले 50% छात्र/छात्राएं विदेशी हैं। वहाँ के पेटेंट करने वाले 10 उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों के 76% पेटेंट में कम से कम एक विदेशी छात्र की भागीदारी रही है।

दूसरे , यहाँ छात्र के रूप में आने वाले कई अप्रवासियों ने अमेरिका यूनिकॉर्न कंपनियां बनाई हैं ; जिनमें स्पेस एक्स, टेस्ला और पेपाल जैसी कंपनियों का नाम गिनाया जा सकता है। अमेरिका की सीमित अप्रवासी नीति के चलते अनेक प्रतिभावान विद्यार्थी यूरोप की ओर रुख करेंगे , और अमेरिका को प्रतिभा और विशेषज्ञता के आधार पर बने सिलीकॉन वैली जैसे केन्द्र से वंचित भी होना पड़ सकता है।

तीसरे , अमेरिकी विश्वविद्यालयों को विदेशी छात्रों से फीस की मोटी रकम मिलती है , जिसके दम पर देशी छात्रों को सब्सिडी दी जाती है। विदेशी छात्रों पर प्रतिबंध लगाकर , अमेरिकी विश्वविद्यालयों के कोष को खाली किया जाना चुनौतीपूर्ण स्थितियां उत्पन्न कर देगा।

भारत पर प्रभाव

भारत और चीन से ही सबसे ज्यादा लोग अमेरिका जाकर पढ़ते या काम करते हैं। पिछले कुछ दशकों में प्रतिभा पलायन को लेकर भारतीय सरकारें चिंतित भी रही हैं। कुछ वर्षों में इसका स्वरूप एक प्रकार के लाभकारी चक्र में परिवर्तित हो गया है। स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए गए अनेक भारतीय छात्रों ने अमेरिकियों की तुलना में अधिक स्टार्ट-अप कंपनियां खोली हैं। इसके साथ ही उन्होंने कई भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर को काम दिया, कई भारतीय विश्वविद्यालयों को शोध व अनुसंधान में अपना पार्टनर बनाया है। अमेरिका के भारी-भरकम खर्चों और नौकरशाही के अड़ंगों के कारण , अमेरिका के संस्थानों में जनित नवाचार को भी भारत में स्थानांतरित किया गया है। इन सबसे भारत-अमेरिका के बीच परस्पर विचारों का आदान-प्रदान होता रहा है।

अमेरिका में पढ़ने वाले अनेक विदेशी छात्र एक प्रकार से सांस्कृतिक दूत का काम भी करते हें। अमेरिका की वर्तमान अप्रवासी नीतियों का नया संदेश उसकी एक नकारात्मरक छवि प्रस्तुत करता है। यह किसी भी रूप में अमेरिका एवं भारत के लिए हितकारी नहीं हो सकता। अत: अमेरिका को अगला कदम सोच-समझकर उठाना चाहिए।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित विवेक वाधवा और एलेक्स के लेख पर आधारित। 13 जुलाई , 2020