दालों की खेती के लाभ

Afeias
29 Nov 2016
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pulses-621x414Date: 29-11-16

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हाल ही में देश के कई भागों में जिस प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण से हम सभी जूझे हैं, उसके पीछे के कारणों में ठूंठ का जलाना भी एक कारण था। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार प्रदूषण को बढ़ाने में 70 प्रतिशत भागीदारी ठूंठ जलने की रही। हमारे लिए यह एकबड़ी चुनौती है। ठूंठ जलाने वाले किसानों के लिए सुब्रहमण्यम समिति ने एक बहुत अच्छा हल ढूंढ निकाला है। यह हल केवल किसानों को हीनहीं, सामान्य जनता के लिए भी बेहद लाभकारी हो सकता है।

भारतीय कृषि संस्थान के के.वी.प्रभु और उनके साथियों ने पूसा अरहर-16 के नाम से अरहर की ऐसी किस्म विकसित की है, जिसे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के अलावा भारत के सभी धान की पैदावार वाले क्षेत्रों में लगाया जा सकता है।

  • अरहर (पूसा-16) एवं अन्य दालों की खेती के लाभ
    • देश में अरहर की कमी से हम सब जूझ रहे हैं। इसके बढ़ते दामों से भी परेशान हैं। देश में अरहर की मौजूदा किस्मों की तुलना में पूसा अरहर की पैदावार काफी ज्यादा होती है।
    • इसके दाने एक ही आकार के होते हैं।
    • उत्तर भारत में प्रचलित मशीनी कटाई से भी इसकी कटाई आसानी से की जा सकेगी।
    • सबसे प्रमुख लाभ होगा इसके ठूंठ का निपटारा। इस अरहर का ठूंठ धान के ठूंठ से अलग हरा होता है। धान के ठूंठ में सीलिका की मात्रा अधिक होती है और इसका अपघटन मुश्किल से होता है। जबकि पूसा अरहर के ठूंठ को रोटावेटर से काटकर अलग करने के बाद इसके निचले भाग को आराम से जुताई में लिया जा सकता है। इसका अपघटन बहुत जल्दी हो जाता है।
    • धान के बजाय दालों की बुआई के सामाजिक लाभ भी हैं। दालें कम खाद, कम पानी लेती है। साथ ही धान की खेती से अलग दालें भूमि को नाइट्रोजन युक्त बना देती हैं।
    • गणना के अनुसार दालों के उत्पादन से प्रति हेक्टेयर 13,240 रुपये का लाभ हो सकता है। दालों के माध्यम से किसानों की आय बढ़ सकती है, बशर्ते दालों का समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल बढ़ाकर 9,000 रुपये कर दिया जाए।
    • अगर हम दालों की खेती को थोड़ा और विस्तृत नजरिए से देखें, तो कृषि के क्षेत्र में उन लाभों को प्राप्त कर सकेंगे, जिनसे हम अभी वंचित हैं।
  • कृषि में सही लाभ प्राप्त करने के लिए और क्या किया जा सकता है
    • भारतीय कृषि के सतत विकास के लिए हमें भारतीय कृषि वैज्ञानिकों के अथक प्रयास एवं अनुसंधानों को सही स्थान देना होगा। साथ ही नए अनुसंधानों को भी बढ़ावा देना होगा।
    • विज्ञान के व्यावसायिक लाभ के लिए फसलों के दामों का पुर्नमूल्यांकन करना होगा। अगर दालों के संदर्भ में इस बात को देखें, तो पाएंगे कि दालों की तुलना में धान का अधिकतम समर्थन मूल्य निश्चित रहता है और ज्यादा रहता है। इसलिए किसान दाल बोकर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। सुब्रहमण्यम् समिति के सर्वेक्षण के अनुसार धान की तुलना में दाल की फसल में छः गुना अधिक खतरा है। इसकी पूर्ति के लिए दाल का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाना चाहिए।
    • फसलों के मूल्य निर्धारण के दौरान सामाजिक हानि और लाभ पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। वर्तमान में कृषि मूल्य निर्धारण आयोग (Commission for Agriculture costs and Prices) निजी लागत और लाभ को ही ध्यान में रखते हुए अधिकतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर देता है। उत्तर भारत में धान के अत्यधिक उत्पादन और उसके हानिकारक प्रभावों से हमें सीख लेकर इस चलन को बदलना होगा।

दालों के उत्पादन को बढ़ावा देकर हम न केवल अपने पर्यावरण को बचा पाएंगे, बल्कि विज्ञान एवं अनुसंधान में देशी-संस्थानों को भी प्रोत्साहन देंगे।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अरविंद सुब्रहमण्यम् के लेख पर आधारित।

 

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