रोजगार, खेती और जलवायु के बीच अंतर्संबंध

Afeias
29 Oct 2019
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Date:29-10-19

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क्या हम आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहे हैं? यह ज्वलंत प्रश्न आज हर एक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अकादमिक चर्चा का विषय बना हुआ है। यदि पिछले कुछ तिमाहियों की आर्थिक समीक्षा की जाए, तो आर्थिक मंदी के लक्षणों से इंकार नहीं किया जा सकता। इस मुद्दे पर अगर गहन विचार किया जाए, तो यह मंदी जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है, और इसी से जुड़ा है- बेरोजगारी का संकट।

यदि वैश्विक तौर पर देखें, तो संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग जलवायु परिवर्तन का कारण बना। भारत के संदर्भ में भी यह सही ठहरता है। इसके साथ ही एक दूसरा पक्ष आय के स्तर से जुड़ा है। भारत में आय के स्रोतों को बढ़ाने के लिए अनुकूल विकास साधनों को भी अपनाया जा सकता है। अतः भारत के विकास में सुस्ती को संकट के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

ग्रामीण बेरोजगारी

  • 2011-12 के बाद के सामयिक श्रम बल सर्वेक्षण से पता चलता है कि बेरोजगारी में असामान्य वृद्धि हुई है। शहरी महिलाओं में तो यह लगभग दोगुनी हो गई है।
  • 2017-18 के सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण पुरूषों में यह औसत से चार गुना अधिक है।

बेरोजगारी के आंकड़ों को देखते हुए सरकार ने कार्पोरेट कर में कमी की घोषणा की है। यह एक ऐसा सकारात्मक कदम है, जो विस्तृत दायरे को लेकर नहीं उठाया गया है।

  • यह स्थिर होते कार्पोरेट निवेश को बढ़ाने का उद्देश्य रखता है।
  • सरकार को समझना होगा कि कार्पोरेट निवेश में कमी का कारण अंततः ग्रामीण मांग पर आधारित होता है। समस्या की जड़ तक पहुँचे बिना समाधान नहीं मिलेगा।
  • समस्या यह है कि गांवों में जिन वस्तुओं की अधिक मांग है, वे कार्पोरेट निर्माता और ऑटोमोबाइल उद्योगों की तरह संगठित नहीं हैं। अतः सरकार इनकी समस्या पर ध्यान नहीं देती।
  • ग्रामीण दायरे का संज्ञान न सिर्फ जनसंख्या को देखते हुए लेने की आवश्यकता है, बल्कि उनके आय के निम्न स्रोतों के कारण भी है।

ग्रामीण पुरूषों में बढ़ती बेरोजगारी दर ही वहाँ की घटती उपभोक्ता मांग का प्रदर्शन करती है।

घटता उत्पादन

आखिर ग्रामीण आय में आई सुस्ती का कारण क्या है?

  • हाल ही के वर्षों में या दूसरी तरह से कहें, तो 2008-09 से लेकर अब तक कृषि में लगातार घाटा चल रहा है। उत्पादन में गिरावट का सीधा असर ग्रामीण घरों में वस्तुओं के उपभोग पर पड़ता है। आमतौर पर बुरी फसल की भरपाई किसान अच्छी फसल के दिनों में कर लिया करते थे। परन्तु अब फसल की अस्थिरता से कृषि श्रम की मांग कम होती जा रही है। इसका प्रभाव आपूर्ति पर भी पड़ता है। अंततः बेरोजगारी बढ़ती जाती है।
  • इसके कारण कृषि निवेश में लगातार कमी हो रही है। निजी निवेश उत्पादन वृद्धि का अनुसरण करते हैं, और इसे आगे बढ़ाते हैं। कार्पोरेट कर में कमी करके सरकार केवल एक लक्षण का उपचार कर रही है। मुख्य समस्या तो ग्रामीण आय को बढ़ाने की है।

दीर्घकालीन समाधान

बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए सबसे पहले कृषि उत्पादन को बढ़ाने पर विचार करना होगा।

  • यदि हम पिछले एक दशक में कृषि उत्पादन को बढ़ाने पर नजर डालें, तो पता चलता है कि मुख्य समस्या फसल चक्र के साथ-साथ स्थिरता की है।

कृषि-चक्र को संतुलित रखने के लिए कृषि विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

  • कृषि-उत्पादन में आई कमी का एक बहुत बड़ा कारण पारिस्थितिकी से जुड़ा है।
  • इसके कारण भूमि का क्षरण हो रहा है। मृदा में नमी और पोषण की कमी हो रही है। भू-जल स्तर गिर रहा है। इससे खेती की लागत बढ़ रही है।

ये सभी कारण मानवजनित हैं।

  • इन कारकों से निपटने के लिए गहन अनुकूलन की आवश्यकता है। कुशल प्रशासन, संसाधनों की पूर्ति और किसानों की व्यावहारिक समझ को विकसित करना ही सुधार के मंत्र हैं।

सरकार की नीति, अनुपातहीन रूप से कर की दरों के हेर-फेर में पड़ी है। जबकि अभी सार्वजनिक कृषि संस्थान एवं किसान निकायों को बनाने की आवश्यकता है। भविष्य में हम जलवायु परिवर्तन के प्रचण्ड दौर से गुजर सकते हैं, जिसके लिए किसानों को अभी से तैयार करने की आवश्यकता है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित पुलाप्रे बालकृष्णन् के लेख पर आधारित। 1 अक्टूबर, 2019

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