तमाम आयोगों की निरर्थकता

Afeias
04 Sep 2018
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Date:04-09-18

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भारत में राष्ट्रीय आयोगों की भरमार है। फिलहाल इनकी संख्या आठ के करीब हैं। ये स्वायत्त शासी संस्थान, मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता पर नजर रखते हुए, एक प्रकार से सरकार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं। राष्ट्रीय आयोगों का इतिहास 1978 से प्रारंभ होता है। इस वर्ष केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की गई थी। इसी के पांच माह पश्चात् अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आयोग की स्थापना की गई थी, जिसे बाद में संवैधानिक दर्जा भी मिल गया।

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को हाल ही में यह दर्जा प्राप्त हुआ है। 1990 में राष्ट्रीय महिला आयोग के गठन का प्रस्ताव रखा गया। इसके दो वर्ष बाद पहला महिला आयोग गठित कर दिया गया था। इसके बाद पिछड़े वर्ग और सफाई कर्मचारियों के लिए भी अलग-अलग आयोग बनाए गए। तत्पश्चात् मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों और बाल-अधिकार संरक्षण हेतु अलग-अलग आयोगों का गठन किया गया। सभी आयोगों में नियुक्ति की प्रक्रिया एक-दूसरे से भिन्न है। मानवाधिकार आयोग की अध्यक्षता जहाँ मुख्य न्यायाधीश करते हैं, वहीं महिला आयोग और अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों का चुनाव सरकार करती है।

महिला आयोग के अध्यक्ष के लिए ‘महिलाओं के प्रति समर्पित व्यक्ति’ को चुना जाना प्राथमिकता है, जबकि अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को उनकी श्रेष्ठता, क्षमता और अखंडता की भावना के आधार पर चुना जाता है। महिला आयोग के सदस्यों को कानून, व्यापारिक संघों, महिलाओं के रोजगार को बढ़ावा देने वाले उद्योगों, स्वयंसेवी महिला संगठनों आदि से संबंधित होना चाहिए। परन्तु वर्तमान में इन तय पैमानों का कोई महत्व नहीं रह गया है, और अधिकांश सदस्य इस योग्य प्रतीत नहीं होते।

सभी आठ आयोगों के होते हुए भी आज देश में मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। ये आयोग सफेद हाथी की तरह हैं, जो सरकार के बजट में सेंध लगाए जा रहे हैं। इसका भार अंतिम रूप से करदाताओं पर ही आता है। जबकि इनकी सार्थकता के पक्ष में में कोई विशेष तर्क नहीं मिलते हैं। सरकार को चाहिए कि निरर्थक हो चुके आयोगों के अस्तित्व पर पुनर्विचार करे।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ताहिर महमूद के लेख पर आधारित। 8 अगस्त, 2018

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