जलवायु परिवर्तन से निपटने की कमजोर बुनियाद पर खड़ा भारत
Date:12-02-19 To Download Click Here.
आने वाले वर्षों में देश के बुनियादी ढांचे पर अरबों-खरबों रुपये खर्च होने वाले हैं। निर्माण, सेवा और कृषि क्षेत्र में व्यापक स्तर पर निजी निवेश को भी छूट दिए जाने की योजना है। इस प्रकार की प्रत्येक नीति और निवेश की अवधि 5 से 50 वर्षों के बीच की हो सकती है। इन सभी योजनाओं का प्रभाव लाखों लोगों के जीवन पर पड़ना तय है। इसके लिए लोगों को अपने सीमित और कम संसाधानों के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी।
सवाल यह है कि क्या ऐसी योजनाओं और नीतियों के निर्माण से पहले मानव-जीवन के सामने खड़ी जलवायु परिवर्तन की चुनौती पर विस्तार से सोचा गया है? दुर्भाग्यवश इसका उत्तर नकारात्मक मिलता है। हम कहाँ, कैसे और किस सीमा तक इस तथ्य को नजर अंदाज कर रहे हैं, इसका अनुमान इन बिन्दुओं के द्वारा लगाया जा सकता है।
- जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरों, और इससे संबंधित लागत-लाभ विश्लेषण की कोई औपचारिक प्रक्रिया ही नहीं है, जिसके आधार पर योजनाओं को आंका जा सके। न तो संसद में इस मुद्दे पर कोई बहस की जाती है, और न ही केन्द्र एवं राज्य स्तर पर हर वर्ष बनाए गए नए कानूनों में इसे स्थान दिया जा रहा है। इसके लिए स्थायी समिति बनाए जाने के बारे में भी कोई सोच नहीं है।
- हाल ही में एक अध्ययन से इस बात का खुलासा हुआ है कि हमारे महासागर पांच वर्ष पूर्व के अनुमान के विपरीत 40 प्रतिशत अधिक तेजी से ग्लोबल वार्मिंग के चिन्ह दिखा रहे हैं। 2018 को चैथे सबसे गर्म वर्ष के रूप में रिकार्ड किया गया है। 1990 से 2016 के बीच भारत की एक तिहाई तटीय रेखा, भू-क्षरण का शिकार हो चुकी है।
इसके बाद भी अंडमान जैसे जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों के तटों पर ही अनेक पर्यटन संबंधी बुनियादी ढांचों को लाए जाने की योजना बना ली गई है। हिमालय के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की जानकारी के बावजूद नदियों को जोड़ने का कार्यक्रम जारी रखा गया है।
- जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए भारत ने पेरिस समझौते को अपनाया है। इसमें उसे 2030 तक 30 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन को कम करना है। नेशनल एक्शन प्लॉन फॉर क्लाइमेट चेंज (एन ए पी सी सी) के अंतर्गत विभिन्न मंत्रालयों में आठ अलग-अलग मिशन पर काम किया जा रहा है। परन्तु एन ए पी सी सी को निर्णय समिति में कहीं कोई स्थान देने के साक्ष्य नहीं मिल रहे हैं। जब तक हम नीति-निर्माण और निवेश की बुनियादी संरचना में जलवायु अनुकूलन को एकीकृत करके नहीं चलेंगे, तब तक हमारे स्तर पर कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आ सकते।
- 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ की आशंका पहले से ही दिखाई दे रही थी। समग्र दृष्टिकोण के अभाव में वहाँ एक के बाद एक बांध बनाए जा रहे थे। बड़ी नदियों के तटों पर पर्यटन संबंधी अनेक योजनाएं धड़ल्ले से लाई जा रही थीं। इन सबके पहले वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की राय पर विचार क्यों नहीं किया गया?
कुछ समाधान
- अन्य देशों की तरह हमें भी नीति-निर्माण के स्तर पर ही जलवायु परिवर्तन पर संज्ञान लेना होगा। विश्व के अनेक तटीय नगरों को महासागरों के बढ़ते जल स्तर से बचाने के लिए तेजी से काम किया जा रहा है। ‘क्लाइमेट रेडी बॉस्टन’ नगर एक अच्छा उदाहरण है, जहाँ सामुदायिक भागीदारी से जलवायु अनुकूलन पर उत्साहवर्धक काम किए जा रहे हैं।
- विश्व के अन्य देशों में जलवायु अनुकूलन के लिए तैयार अनेक संसाधनों का उपयोग करके भारत भी जलवायु परिवर्तन संबंधी पूर्वानुमान, उसकी समझ और प्रभावों का पूर्व-विश्लेषण करने की क्षमता विकसित कर सकता है।
- इस पूरे महायज्ञ में तकनीक की अहम् भूमिका का होना स्पष्ट है। इसके लिए विभिन्न सरकारी विभागों के बीच एक मंच तैयार किया जाना चाहिए, जिसमें जानकारी को साझा किया जा सके। नीतियों के निर्माण, मूल्यांकन एवं निर्णय लेने में भागीदारी को बढ़ाया जाना चाहिए।
जलवायु परिवर्तन समय की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है। अगर हमने उसके साथ-साथ कदम नहीं बढ़ाए, तो इसका दुष्चक्र हमें लील जाने वाला हो सकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित रोहिणी नीलकेणी के लेख पर आधारित। 24 जनवरी, 2019