क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर

Afeias
24 May 2016
A+ A-

क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर (24-May-2016)Date: 24-05-16

पृथ्वी के बदलते मौसम के साथ अब खेती और किसानों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा होता जा रहा है।

हम रोज ही ऐसी कोई-न-कोई खबर पढ़ते हैं। जबकि खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार 2050 तक भारत में खाद्यान्न की मांग में 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। मौसम में औसतन 20 सेल्सियस की बढ़ोत्तरी के साथ इस मांग का केवल 12 प्रतिशत उपलब्ध कराया जा सकेगा। इसका सीधा प्रभाव यह होगा कि भारत को खाद्यन्न आयात बढ़ाना पड़ेगा। इन सबको ध्यान में रखते हुए कृषि में नए प्रयोग किए जा रहे हैं।

  • हरियाणा के करनाल जिले के तरोरी गाँव को सी जी आई ए आर ¼CGIAR½ कंस्लटेटिव ग्रुप ऑन इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च जैसे कृषि अनुसंधान कार्यक्रम के लिए चुना गया है। इस कार्यक्रम को जलवायु परिवर्तन, कृषि और खाद्य सुरक्षा ¼CCAFS½ का नाम देकर पाँच वर्षों के लिए चलाया जा रहा है। इसके माध्यम से जलवायु परिवर्तन के अनुसार कृषि को अधिक निर्भरता योग्य बनाने के साथ ही खाद्यान्न उत्पादन और खेतों से होने वाली आय को बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है।
  • इस पद्धति में किसानों को खेतों की जुताई और (अभी तक परंपरागत खेती में किसान एक फसल कटने के बाद खेतों की जुताई करके उसे दूसरी फसल के लिए खेती योग्य बनाते हैं) फसलों की कटाई के बाद बचे हुए भाग को काटना मना है। जुताई न करने से भूमि की जल एवं पोषक तत्वों को रोकने की शक्ति बढ़ती है। फसलों के बचे हुए भाग को रखने और फसलों में विविधता लाने से तीन साल में खाद की खपत लगभग 1/5 भाग ही रह जाती है। एक टन चावल और गेहू के अवशेष जो 40 प्रतिशत कार्बन होता है, 5 से 8 किलो नाईट्रोजन, 1-2 किलो फॉस्फोरस और 11-13 किलो पोटेशियम का पोषण देने की क्षमता होती है, जो अगली फसल को मिलता है।
  • करनाल जिले के एक किसान के अनुसार उसने पाँच छः सालों से न तो फसल के अवशेषों को जलाया है और न ही जुताई की है। इसके परिणामस्वरूप उसकी गेहूँ की फसल में प्रति एकड़ 3-4 क्विंटल की वृद्धि हुई। जुताई न करने से डीज़ल की खपत में 80-85 प्रतिशत की कमी आ गई। इससे प्रदूषण भी कम हुआ।
  • चावल की परंपरागत खेती में किसी नर्सरी में पौधे तैयार करके उनकी रोपाई की जगह, अगर सीधे धान बोया जाए, तो मीथेन गैस के उत्सर्जन में 40 प्रतिशत और पानी की खपत में 25 प्रतिशत की कमी आती है।
  • इस पद्धति में ग्रीन सीकर ¼Green Seeker½ नामक सेंसर को फसल के ऊपर लगाने पर वह स्वयं ही खाद के प्रयोग की सीमा बताता है, जिसे एक एप्लीकेशन के जरिए किसानों को बताया जाता है। एक चार्ट के द्वारा नाइट्रोजन की जरूरत भी किसानों को समझाई जाती है। किसान मौसम की जानकारी और मिट्टी की नमी के लिए भी तकनीकों का प्रयोग कर सकते हैं।

करनाल में इसकी सफलता को देखते हुए हरियाणा सरकार 500 गांवों में इस खेती को लागू करने की इच्छुक है। इसी की तर्ज पर भारतीय कृषि अनुसंधान संगठन भी जलवायु परिवर्तन के साथ तादात्म्य बनाने वाली खेती के लिए नेशलन इनोवेशन कार्यक्रम के अंतर्गत देश में 151 गाँवों के प्रयोग कर रहा है।

 

‘‘दि इकॉनॉमिक टाइम्स’’ से साभार

Subscribe Our Newsletter