कश्मीर के द्विभाजन और विशेष दर्जा खत्म करने पर

Afeias
26 Sep 2019
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Date:26-09-19

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देश के अनेक भागों में जहाँ धारा 370 को समाप्त करने का जश्न मनाया जा रहा है, वहीं कश्मीर में इसको लेकर उदासी छाई हुई है। सरकार के इस कदम से न तो केेन्द्र को कुछ लाभ मिला, और न ही श्रीनगर को कोई ज्यादा हानि हुई है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 370 से जुड़ी याचिकाओं की सुनवाई को एक संवैधानिक पीठ को सौंप दिया है, जिसकी बैठक अक्टूबर के पहले सप्ताह में की जाएगी।

इन सब सोपानों के साथ कुछ बिन्दुओं की गहराई से जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए।

1.सरकार के इस कदम को एपेक्स कोर्ट असंवैधानिक ठहरा सकता है।

2.जिस राज्य में राष्ट्रपति शासन हो, उसका विभाजन करना गणतांत्रिक मूल्यों के विरूद्ध है।

3.धारा 370 कश्मीर को विशेष दर्जा नहीं देती थी, बल्कि केन्द्र को विशिष्ट शक्तियां प्रदान करती थी।

पहले बिन्दु को विस्तार से देखें, तो धारा 370 को निरस्त नहीं किया गया है। यह अभी भी संविधान का भाग है। सरकार ने तो एक प्रयोग और संवैधानिक संदिग्धता की दृष्टि से धारा 367 को संशोधित करने के लिए 370 का आव्हान किया है। 5 अगस्त को राष्ट्रपति ने एक नया खंड जोड़ते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को विधान सभा माना जाए, और ‘राज्य सरकार’ का अर्थ ‘मंत्रि-परिषद्‘ के सुझावों पर काम करने वाले राज्यपाल’ से लगाया जाए। इससे धारा 370 का स्वरूप ही बदल गया। चूंकि राज्य पर पहले ही राष्ट्रपति शासन था, अतः संसद ने राज्य की विधानसभा के अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए धारा 370 की ऐसी बखिया उधेड़ी कि उसने धारा के प्रावधानों की आत्मा को ही नष्ट कर दिया।

क्या यह अधिकारों का वास्तविक इस्तेमाल है?

यह सत्य है कि राष्ट्रपति शासन के दौरान संसद को राज्य विधान सभा की शक्तियों के उपयोग का अधिकार मिल जाता है। परन्तु विधान सभा द्वारा दी गई ‘पूर्वोक्त सहमति’ को कहाँ तक शक्तियों के वैध और वास्तविक उपयोग की दृष्टि से उचित माना जा सकता है?

इसकी जाँच के लिए कुछ तर्क जुटाए जा सकते हैं। (1) विधान सभा तो स्वयं ही संविधान सभा द्वारा निर्मित की गई है। इसलिए वह संविधान सभा का स्थान नहीं ले सकती। (2) ‘राज्य सरकार’ का स्थान मंत्रि-परिषद् की सलाह पर चलने वाले राज्यपाल को दिया जाना उचित नहीं है, क्योंकि वहाँ मंत्रि-परिषद् थी ही नहीं। इसलिए राज्यपाल की सहमति वाला प्रकरण भी प्रश्न खड़े करता है। (3) 5 अगस्त को धारा 370 (1)(डी) का इस्तेमाल करके जम्मू-कश्मीर के लिए संविधान के अन्य प्रावधानों का विकल्प खोजा गया। इसका इस्तेमाल धारा 370 को निरस्त या संशोधित करने के लिए नहीं किया गया था। यहाँ अन्य प्रावधानों का अर्थ ‘धारा 238’ और ‘धारा 370’ से लगाया जा सकता है।

यहाँ आकर चार मुख्य बिन्दु उभरते हैं।

1)  एक संवैधानिक प्रावधान का उपयोग दूसरे को अमान्य ठहराने के लिए नहीं किया जा सकता।

2) संविधान के किसी खंड की व्याख्या तभी की जानी चाहिए, जब उसमें अस्पष्टता हो। यहाँ धारा 370 में ‘संविधान सभा’ का स्पष्ट वर्णन है। इसकी बैठक 1951 में हुई और 1957 में यह भंग हुई।

3) जब भी कोई दो प्रावधानों में मतभेद हो, उस स्थिति में दोनों ही प्रावधान मान्य समझे जाने चाहिए।

4) संसद की तरह ही राष्ट्रपति को भी देश के गणतांत्रिक स्वरूप को बदलने का अधिकार नहीं है। शक्तियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संभाव्य प्रयोग का अधिकार, संविधान नहीं देता।

गणतांत्रिक मूल्य पर चोट

जम्मू-कश्मीर राज्य का दो केन्द्र शासित प्रदेशों में विभाजन भी संदेहास्पद है। अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद को किसी राज्य की सीमाओं को दो भागों में विभाजित करने या बदलने के लिए यह अपेक्षित है कि राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर राज्य विधान सभा की सहमति ले। 2018 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले इस प्रावधान को निलंबित कर दिया गया था। इससे ही पता चलता है कि 2018 में ही सरकार ने राज्य के विभाजन की योजना बना ली थी, और अप्रत्यक्ष रूप से कुछ करने का भी संकेत दे दिया था। अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए किसी दुर्भावनापूर्ण कदम को निरस्त किया जा सकता है।

अगर एपेक्स कोर्ट सरकार द्वारा निलंबित किए गए अनुच्छेद 3 को स्वीकार कर लेता है, तो भारतीय गणतांत्रिक मूल्य पूरी तरह से सरकार की मुट्ठी में आ जाएंगे। दूसरे, 1956 के पुनर्गठन अधिनियम से पहले राज्यों को भी अपने विचार रखने का अवसर दिया जाता था। 2014 में तेलंगाना के निर्माण से पहले आंध्रप्रदेश विधान सभा को भी ऐसा नहीं किया गया। तीसरे, जब एक राज्य पर राष्ट्रपति शासन रहता है, तो संसद केवल चैकीदार से ज्यादा की भूमिका नहीं रखता। वह किसी राज्य को दो भागों में बांटने संबंधी कोई प्रस्ताव पारित नहीं कर सकता।

केन्द्र को क्या लाभ?

एक मूल्यांकन धारा 370 को निरस्त किए जाने पर सरकार को होने वाले लाभों का भी होना चाहिए। भारत का संविधान तो पहले भी जम्मू-कश्मीर पर लागू था। संवैधानिक तौर पर इससे राज्य को कोई लाभ नहीं हुआ है। ऑडिट से संबंधित संघ सूची की प्रविष्टि 76 को 1958 में जम्मू-कश्मीर संविधान के पहले संशोधन के द्वारा चुनाव आयोग को वहाँ पहले चुनाव कराने का अधिकार दिया गया था। संघ सूची के 97 प्रावधानों में से 94 को जम्मू-कश्मीर में लागू किया गया था। भारतीय संविधान की 395 धाराओं में से 260 धाराओं को जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा विस्तृत किया जा चुका था। बाकी की धाराओं के लिए राज्य के संविधान में पहले ही प्रावधान था। 250 केन्द्रीय कानूनों को भी जम्मू-कश्मीर तक विस्तृत किया गया था।

सच्चाई तो यह है कि धारा 370 में दिया गया ‘विशेष दर्जा’ राज्य के लिए नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार के लिए था। राज्य को दिए जाने वाले कुछ प्रावधानों को केन्द्र नकार सकता था। उदाहरण के लिए, 44वें संशोधन के अनुसार, देश के बाकी भागों से अलग, जम्मू-कश्मीर में ‘आंतरिक आपातकाल’ के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल लगाया जा सकता है। इसी तरह से, देश के अन्य भागों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सामान्य प्रतिबंधों के साथ लागू किया जाता है, परन्तु जम्मू-कश्मीर में इसे ‘उचित माने जाने वाले उपयुक्त कानून’ के साथ प्रतिबंधित किया जा सकता है।

हम सच्चाई से परे, एक अलग दुनिया में रह रहे हैं। अनुच्छेद 370 के कमजोर पड़ने पर जम्मू-कश्मीर को होने वाले नुकसान और नई दिल्ली के वास्तविक लाभ का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। यह एपेक्स कोर्ट पर निर्भर करता है कि वह भारत को एकात्मक राज्य बनने देता है या नहीं।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 30 अगस्त, 2019