एक राष्ट्र, अनेक धर्म
Date:17-04-18 To Download Click Here.
धर्म तो मानव अस्तित्व का अपरिहार्य हिस्सा है। भारतीय समुदाय तो वैसे ही बहुत धार्मिक है। धर्म हमारे जीवन का अटूट भाग है। हाल ही में कर्नाटक सरकार की केन्द्र सरकार को लिंगायत धर्म को हिन्दू धर्म से अलग एक धर्म मानने की सिफारिश की है। इससे 2003 में उच्चतम न्यायालय द्वारा जैन धर्म को पृथक धर्म के रूप में अस्वीकार करने की बहस ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। अपने एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया था कि ‘किसी ऐसे प्रजातांत्रिक समाज, जिसने समानता के अधिकार को अपना आधार माना है, का आदर्श बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के साथ-साथ अगड़े और पिछड़े वर्ग जैसे भेदभाव को मिटाना है।’ इस प्रकार के निर्णयों से उच्चतम न्यायालय ने ‘एक राष्ट्र, एक धर्म’ का समर्थन करने वालों पर मुहर लगा दी थी।
क्या इसका अर्थ यह माना जाए कि भारतीय संविधान सचमुच नए धर्म को अस्तित्व में लाए जाने पर प्रतिबंध लगाता है? क्या धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ, पहले से ही विद्यमान धर्मों का अनुकरण करना है? क्या इसका अर्थ धर्म के अंतर्गत स्व्तंत्रता या नए धर्म की स्थापना की स्वतंत्रता से नहीं लिया जाना चाहिए? क्या किसी नए धर्म के उत्थान को न्यायिक मान्यता दिया जाना आवश्यक है?
संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के धर्म को मानने का अधिकार दिया गया है। धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ धर्म से स्वतंत्रता भी है। अतः किसी एक धर्म के अंतर्गत अलग-अलग संप्रदाय बनाए जा सकते हैं। संविधान के मसौदे में सिक्ख, जैन और बौद्ध संप्रदायों को हिन्दू ही माना गया था। परन्तु संविधान के लागू होने के साथ ही जैनियों ने इसका विरोध किया। उन्हें अलग धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया। इसी प्रकार सिक्खों ने भी इसका विरोध किया। उन्हें भी अलग धर्म का दर्जा दे दिया गया।
दरअसल, प्रत्येक व्यक्ति अपनी अस्मिता के अधिकार के रूप में अपनी अंतश्चेतना और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए स्वतंत्र है। धर्म तो उसके एकाकीपन में किए गए क्रियाकलाप ही हैं। अतः धार्मिक अनुभव बहुत ही व्यक्तिगत अनुभव है। 1954 में रतिलाल बनाम बाम्बे की सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि ‘‘किसी भी व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार धार्मिक आस्था रखने का अधिकार है।’’ अतः भारतीय संविधान किसी व्यक्ति को अपनी कोई आस्था या धर्म को मानने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। अगर कुछ और लोग भी उसी मान्यता के हैं, तो वे उसे एक नए सम्प्रदाय या पृथक धर्म के रूप में माने जाने का दावा कर सकते हैं। इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता में किसी राज्य या कानून को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। मौलिक अधिकारों को संवैधानिक निर्भरता की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि किसी न्यायालय को धर्म के जरूरी और गैर जरूरी लक्षणों को निर्धारित करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
किसी के लिए आवश्यक तत्व क्या हैं, इसका निर्णय करना किसी व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। अमेरिका में इसे ही ‘एसर्शन टैस्ट’ या “अभिकथन का दावा“ कहा जाता है। अमेरिका के ही एक न्यायाधीश ने इस संबंध में कहा था कि ‘‘धर्म ऐसा अत्यंत व्यक्तिगत और पवित्र सोपान है, जिसे किसी मजिस्ट्रेट को विकृत करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’’
अगर लिंगायत समुदाय को यह लगता है कि वे हिन्दुओं से भिन्न हैं, तो उन्हें ऐसा मानने का पूरा अधिकार है। उन पर हिन्दू की पहचान थोपे जाने का कोई कारण समझ में नहीं आता। बल्कि अगर ऐसे समुदाय, किसी एक बड़े धर्म की छतरी में होने का दावा करते हैं, तो उन्हें उस धर्म में विचित्र नजरों से देखा जाता है।
लिंगायत समुदाय को यह भ्रम है कि किसी धार्मिक समुदाय की पहचान, कानून की गुलाम है। सच्चाई यह है कि किसी समुदाय का अस्तित्व कानून पर निर्भर नहीं करता। जैसा कि ग्रेसियों-बल्गेरिया समुदाय के संदर्भ में परमानेंट कोर्ट ऑफ इंटरनेशल जस्टिस ने कहा था कि “किसी संप्रदाय का अर्थ उसके सदस्यों की संख्या से नहीं, वरन् उनकी धार्मिक, जातीय एवं भाषायी परंपराओं की सहभागिता से लिया जाना चाहिए।” कोर्ट ने यह भी कहा था कि किसी संप्रदाय की पहचान कानून पर आश्रित नहीं है। अगर कोई संप्रदाय अपनी परंपरा से भिन्न कुछ सांस्कृतिक तत्वों का रक्षक है, और वह इन तत्वों को सहेजने के लिए तत्पर है, तो उसे एक पृथक संपदाय के रूप में मान्यता देने के लिए यह एक पर्याप्त कारण है।
यहाँ तक कि एन. अहमद बनाम एम.जे.हाई स्कूल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी यही कहा था कि अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना तो तथ्यों पर निर्भर करता है। इसमें सरकार की मुहर की कोई आवश्यकता नहीं है। साथ ही, राज्य द्वारा चिन्हित अल्पसंख्यकों के मामले में भी केन्द्र की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैज़ान मुस्तफा के लेख पर आधारित।