स्पेशल कोर्ट की सार्थकता पर विचार किया जाए

Afeias
16 Apr 2018
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Date:16-04-18

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अक्सर यह सुनने में आता है कि किसी विशेष मुद्दे से जुड़े मामलों को निपटाने के लिए केन्द्र सरकार, विशेष या स्पेशल कोर्ट बनाने का प्रस्ताव रखती है। जैसे दिसंबर माह में सांसदों और विधानसभाओं से जुड़े 1,581 लंबित मामलों के निपटारे के लिए ऐसी सिफारिश की गई थी। इस प्रकार की सिफारिशों में अक्सर दो भिन्न न्यायालयों की बात की जाती है : स्पेशल कोर्ट और फास्ट-ट्रैक कोर्ट।

स्पेशल कोर्ट इनका अस्तित्व स्वतंत्रता के पहले से अधीनस्थ न्यायालयों में मिलता है। इनका गठन उस क्षेत्र की न्यायिक प्रणाली की सीमा के अंदर आने वाले मामलों के लिए किया जाता रहा है। 1950 से लेकर 2015 तक 25 से भी अधिक स्पेशल कोर्ट निर्मित किए गए हैं। लगभग चार दशक पहले उच्चतम न्यायालय की एक पीठ ने स्पेशल कोर्ट विधेयक, 1978 पर अपना निर्णय दिया था। इसमें स्पष्ट किया गया था कि अपनी किन विधायिका शक्तियों के साथ संसद, स्पेशल कोर्ट का गठन कर सकती है। इसके अनुसार विशेष अदालतों या स्पेशल कोर्ट को कुछ यूँ समझा जा सकता है- “एक ऐसा न्यायालय“ जिसका गठन विशिष्ट प्रकार के मामलों को छोटी और सरल प्रक्रिया से निपटाने के लिए किया जाता है।

फास्ट-ट्रैक कोर्ट इसकी संस्तुति ग्यारहवें वित्त आयोग ने की थी। इसका उद्देश्य बकाया मामलों को निपटाना था। स्पेशल कोर्ट से उलट, इनका निर्माण विधायिका की जगह राज्य सरकारों को उच्च न्यायालयों की मदद से करना था। इसे 2005 में ही खत्म किया जाना था। परन्तु 2011 तक इसका विस्तार कर दिया गया। दिल्ली ने बलात्कार के मामलों को निपटाने के लिए इस प्रकार के छः न्यायालय बनाए हैं।

स्पेशल कोर्ट की सार्थकता – दोनों में भिन्नता यह है कि जहाँ फास्ट ट्रैक कोर्ट और ट्रिब्यूनल के बारे में पर्याप्त स्पष्टता मिलती है, वहीं स्पेशल कोर्ट के गठन के बारे में अलग-अलग तरह के शब्दों के इस्तेमाल से उसके स्वरूप पर भ्रम की स्थिति बनी रहती है।

इन न्यायालयों के उद्देश्य पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। कानून कहीं कहता है कि सरकार ‘चाहे तो’, और कहीं कहता है कि सरकार को ‘चाहिए’ कि वह स्पेशल कोर्ट का गठन करे। साथ ही विधान में यह भी स्पष्ट नहीं है कि ऐसे कोर्ट के गठन से विधायिका कौन सा ध्येय पूरा कर सकती है। ऐसे में राज्य सरकार और उच्च न्यायालय के लिए असमंजस की स्थिति हो जाती है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा इनकी संवैधानिक स्थिति के बारे में दिए गए वक्तव्यों के साथ इन न्यायालयों की आवश्यकता और क्षमता की शायद ही कभी समीक्षा की गई है। इसके बावजूद अलग-अलग प्रकरणों में इनकी स्थापना की जा रही है।

देश की त्रिस्तरीय न्यायिक प्रक्रिया में अधीनस्थ न्यायालयों के पास सबसे अधिक लंबित मामले हैं। सुनवाई की आवृत्ति और लंबित मामलों की संख्या देखते हुए ही स्पेशल कोर्ट की कार्यप्रणाली पर विचार किया जाना चाहिए। सरकारें यही सोचती हैं कि स्पेशल कोर्ट के गठन से न्यायिक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। परन्तु अभी तक ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। अतः इस पर चर्चा किए जाने की आवश्यकता है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अरिजीत घोष और रौनक चन्द्रशेखर के लेख पर आधारित।

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