एक भिन्न तरह की असमानता

Afeias
16 Oct 2019
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Date:16-10-19

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हाल ही में फहीमा शीरीन बनाम केरल सरकार मामले में उच्च न्यायालय ने इंटरनेट की उपलब्धता को एक मौलिक अधिकार की तरह मानने का आदेश दिया है। इस अधिकार को निजता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शिक्षा के अधिकार के अधीन रखा जाना चाहिए। यह एक स्वागतयोग्य कदम है। इंटरनेट की सुलभता के अधिकार को एक स्वतंत्र अधिकार माना जाना चाहिए।

डिजीटल असमानता

असमानता एक ऐसी धारणा है, जो सामाजिक न्याय और विकास पर ध्यान केन्द्रित करती है। इसकी तुलना ग्रीक मिथक के सर्प हाइड्रा से की जा सकती है। जब-जब सरकार असमानता के किसी एक पक्ष को सुधारने का प्रयत्न करती है, कई नए पहलू सामने आ खड़े होते हैं।

हाल ही में, कई सरकारी और निजी सेवाओं को डिजीटल कर दिया गया है। इनमें से कुछ तो केवल ऑनलाईन हो गई हैं। इसने भी एक असमानता को जन्म दिया है। इसे डिजीटल असमानता कहा जा सकता है। इसमें सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन; सूचना की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी और, डिजीटल साक्षरता की कमी के कारण और भी पिछड़ा रह जाता है। डिलोयट की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 के मध्य में भारत की डिजीटल साक्षरता मात्र 10 प्रतिशत थी। हम डिजीटल अर्थव्यवस्था के ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैं, जिसमें लोगों को काम, सहयोग, सूचना समझने और अपने मनोरंजन के लिए डिजीटल प्रक्रिया के माध्यम से रूपांतरित होना ही पड़ेगा। धारणीय विकास लक्ष्यों में भी इसे पहचाना गया है, और इसी कारण भारत सरकार ने “डिजीटल इंडिया मिशन” चलाया है। ऑनलाइन सेवाएं उपलब्ध कराने से सरकार को क्षमता और लागत में लाभ मिलता है। नागरिकों को भी नौकरशाही के निचले स्तर पर जूझना नहीं पड़ता। इंटरनेट सुलभता के अभाव में जनसंख्या का बहुत-सा भाग पीछे छूट जाएगा।

इंटरनेट सुलभता में अपेक्षित प्रगति किए बिना प्रशासन और ऑनलाइन सेवाओं के साथ पर्याप्त आर्थिक प्रगति नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए ऐसे सेवा केन्द्र; जो ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में काम करते हैं, के द्वारा डिजीटल सरकारी सेवाओं और योजनाओं की जानकारी दी जाती है। सेवाओं को ऑनलाइन करके सरकार अपने संसाधनों को बचा रही है। परन्तु बड़ी जनसंख्या के पास इंटरनेट न होने से वे इसका लाभ ही नहीं उठा पाते हैं। इस समस्या को पहचानकर सरकार ने “भारत नेट प्रोग्राम” प्रारंभ किया है। इसमें सभी ग्राम पंचायतों को ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क उपलब्ध कराया जाएगा। हालांकि यह योजना समय पर पूरी नहीं हो पाने के कारण इसका खर्च दोगुना हो चुका है। नेशनल डिजीटल लिटरेसी मिशन से मात्र 1.67 प्रतिशत जनसंख्या को ही लाभ पहुँचा है। यह योजना निधि की कमी से जूझ रही है। यह चिंताजनक है, क्योंकि इंटरनेट सुलभता और डिजीटल कौशल बढ़ाने के साथ-साथ सरकार को डिजीटल ढांचे पर भी काम करना चाहिए।

डिजीटल साक्षरता का महत्व

इंटरनेट सुलभता और डिजीटल साक्षरता का सकारात्मक प्रभाव सरकारी सेवाओं से परे भी है। इससे लोगों को अनेक प्रकार की सेवाएं, सुविधाएं, सहयोग प्राप्त होता है। सामाजिक-सांस्कृतिक नेटवर्क से जुड़ाव बनता है। वर्तमान संदर्भ में साक्षरता की परिभाषा ही ऑनलाइन सामग्री प्राप्त करने की धारणा को समेटे हुए है। केरल उच्च न्यायालय ने इसे मौलिक अधिकारों में जोड़ने की जो पहल की है, उसके लिए इतना ही कहा जाना चाहिए कि डिजीटल साक्षरता को अपने आप में ही अधिकार माना जाना चाहिए। इस ढांचे के लिए सरकार का दायित्व है कि वह कम से कम इंटरनेट सुलभता के न्यूनतम पैमानों की पूर्ति करे। इस पूरे प्रकरण में सरकार की जवाबदेही भी बनती है। विधायिका और कार्यकारिणी को चाहिए कि इस दिशा में उत्साहित करने वाले कदम उठायें। न्यायालय ने अनुच्छेद 21 को सदा ही व्यापक दायरा देते हुए उसे जीवन के आवश्यक अधिकारों से जोड़ा है।

इंटरनेट सुलभता के अधिकार से संविधान के अनुच्छेद 38(2) और 39 में भी प्रावधान प्राप्त हो सकते हैं। अब यह एक सामान्य न्यायिक प्रक्रिया सी बन चली है, जिसमें नीति निर्देशक तत्वों के साथ मौलिक अधिकारों को भी रेखांकित किया जाता है।

हम आज ‘सूचना के युग’ में रह रहे हैं। इंटरनेट की असमान सुलभता से सामाजिक-आर्थिक विषमताएं पैदा होती हैं। इस स्थिति से उबरने के लिए इंटरनेट सुलभता के महत्व को पहचाना जाना चाहिए। नागरिकों को सूचना, सेवाओं और जीविका के बेहतर अवसर उपलब्ध कराने के लिए इसे सुलभ कराया ही जाना चाहिए।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित सुमेश श्रीवास्तव के लेख पर आधारित। 24 सितम्बर, 2019

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