एक भारत के अनेक ऊतार-चढ़ाव

Afeias
21 May 2018
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Date:21-05-18

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हमारा देश ऐसा है, जो एक बार में कई प्रकार के संक्रमणों से गुजरता है। जहाँ एक ओर देश में कई अरबपति हैं और मुंबई विश्व का 12वां अमीर देश है, वहीं हमारी 55 प्रतिशत जनता कृषि कर्म पर जीवन-निर्वाह कर रही है। यहाँ हर दिन लगभग 37 कृषक आत्महत्या कर लेते हैं।जहाँ सुजुकी की पूरक कंपनी 44 अरब डॉलर का व्यापार कर लेती है, वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में भारत का स्थान 154वां है। यह श्रीलंका और बांग्लादेश से भी पीछे है।

भारतीय बैंकों की स्थिति बताती है कि ऋण लेकर चुकाने के मामले में भारतीय व्यवसायियों की अपेक्षा उपभोक्ता बेहतर हैं। एच डी एफ सी जैसे उपभोक्ता – केन्द्रित बैंकों की स्थिति इसलिए ही आज इतनी अच्छी है और उनकी तुलना आई एन जी और 149 वर्ष पुराने गोल्ड मैन से की जा सकती है।

राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी इसी प्रकार की विसंगतियां हैं। भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 1860 डॉलर है। बिहार में यह 525 डॉलर है, और गोवा में 4156 डॉलर है। दोनों में लगभग आठ गुना का अंतर है। दोनों राज्यों में अलग-अलग प्रकार की चुनौतियां हैं। जहाँ बिहार में बेरोजगारी और ग्रामीण विद्युतीकरण की समस्या है, वहीं गोवा में इन-माइग्रेशन और एकीकरण की मुश्किलें हैं।

यही विषमता दक्षिणी-उत्तर और पश्चिमी-पूर्वी राज्यों में देखने को मिलती है। इन परस्पर विरोधी अंतर के कारण देश के एक भाग के राजनेता और मतदाता के लिए दूसरे भाग के दृष्टिकोण को समझना मुश्किल होता है अतः एक समग्र दृष्टिकोण नहीं बन पाता।

इस प्रकार की विभाज्य परिस्थितियों का कारण असमान आर्थिक और सामाजिक विकास माना जा सकता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि किस प्रकार आर्थिक स्थितियों ने मूल्यों का निर्माण किया। खेती की आवश्यकता ने घुमक्कड़ जातियों को स्थायित्व सिखा दिया। इससे जातीय निष्ठा, धर्म और राजतंत्रों की स्थापना हुई। फैक्ट्रियों के आगमन के साथ ही प्रजातंत्र, फासीवाद और साम्यवाद का उदय हुआ।

सूचना युग ने समाज को उदारवाद और वैश्वीकरण की ओर एक कदम आगे बढ़ाया। अब हम उस भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं, जिसे कल्पनाशील युग कहा जा सकता है। इस युग में ज्ञान और विवेचना की बजाय कल्पना और सृजनात्मकता का महत्व होगा। इस युग की विशेषता वैयक्तिकता होगी।

वर्तमान में, अलग-अलग समूहों के लोग अलग-अलग प्रकार के संक्रमण काल में हैं। विश्व के अलग-अलग हिस्सों में एक विशेषता है, जो भारत में समानांतर चल रही हैं। सीरिया का जनजाति संबंध, भारतीय जाति व्यवस्था से मिलता है। अफ्रीका की संसाधन-विहीनता हमारी नक्सल समस्या से मिलती है।

राष्ट्रवाद के नारे के साथ पुतिन का अभ्युदय, भारतीय राष्ट्रवाद से कहीं भिन्न नहीं लगता।

चीन के समृद्ध मध्य वर्ग को देखकर लगता है कि भारत के भी तो सैंकड़ों मध्यवर्गीय लोग प्रतिवर्ष उस ऊँचाई तक पहुँचते जा रहे हैं। न्यूयार्क और हांगकांग का व्यावहारिक भौतिकवाद, मुंबई और दिल्ली से कहीं भिन्न नहीं लगता।

नवाचार और सिलीकॉन वैली के ही समानान्तर भारतीय उद्यमी और दस बड़ी दिग्गज कंपनियां हैं।

एक साथ होने वाले ये कई संक्रमण जटिल नेतृत्व की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। हम विश्व के कई भागों में देख भी रहे हैं कि एक विचित्र प्रकार के संक्रमण के चलते संभ्रांत लोग, बहुमत से असंगत रहते हैं। किसी भी वाद में इस संक्रमण का कोई समाधान नहीं है। इससे तो विवाद और भी बढ़ेंगे। विचारधारा पर निर्भरता से बात नहीं बनेगी। इसके लिए कार्यान्वयन पर ध्यान देना होगा।

यहाँ लोग आम सहमति का अनुसरण करते हैं, जबकि भारतीय जटिलताओं को देखते हुए उन्हें अपने जुनून को अपनाना चाहिए। आने वाले समय में नेताओं को अपनी आलोचनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए। इस देश का नेतृत्व करना एक ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलने के समान है। इसे वही नेता पार कर सकता है, जिसमें दम होगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित गौरव डालमिया के लेख पर आधारित। 3 मई, 2018