एक अपारदर्शी न्यायपीठ
Date:21-02-19 To Download Click Here.
69 वर्ष पूर्व भारत के उच्चतम न्यायालय के शुभारंभ के अवसर पर हमें एक स्वतंत्र न्यायपालिका का भरोसा दिलाया गया था। इसे विधायिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाने वाले एक तृतीय स्तंभ के रूप में दर्शाया गया था। इसके गठन के अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि इसमें ऐसे न्यायाधीशों को चुना जाएगा, जो कार्यपालिका के विरुद्ध खड़े होने का साहस रख सकें। ऐसा लगता है कि हम उनके मंतव्य को भूल चूके हैं।
किसी न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आधार, उसकी न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया होती है। उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चुनाव करने केे लिए न्यायाधीशों का ही कॉलेजियम होता है। समय के साथ-साथ इस कॉलेजियम की कार्यप्रणाली की निष्पक्षता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े हो गए हैं। मुश्किल यह भी है कि यह कॉलेजियम किसी के भी प्रति जवाबदेह नहीं है। इसकी अपारदर्शिता को चुनौती न दे पाना सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है।
- कॉलेजियम की प्रमुख समस्याओं में से एक, उसका वरिष्ठता पर बहुत अधिक बल देना माना जा सकता है।
यह सच है कि वरिष्ठता को आधार बनाने से कॉलेजियम में एक प्रकार की पारदर्शिता और निश्चितता की झलक मिलती है। दूसरी तरफ इस प्रकार के चुनाव में प्रतिभा और योग्यता पीछे छूट जाती है।
हाल ही में 2018 में दो न्यायाधीशों के चयन ने इस विवाद को विचाराधीन बना दिया है। इस चयन प्रक्रिया में वरिष्ठता को ताक पर रख दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने तो केवल प्रबल कारणों के चलते ऐसा करने की छूट दी थी। परन्तु इस चयन में कोई प्रबल कारण नहीं थे।
- 2018 में हुई न्यायाधीश माहेश्वरी और खन्ना की नियुक्ति ने कॉलजियम के अपने सिद्धांतों पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इन नियुक्तियों के माध्यम से कॉलेजियम ने मानो सिद्ध कर दिया है कि वह अपने सिद्धांतों की पवित्रता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है।
दूसरे, किसी को भी यह नहीं पता कि न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति का स्पष्ट आधार क्या है। पूर्व जजों एवं वरिष्ठ वकीलों के भाई-बंधुओं को चयन में प्राथमिकता पर रखा जाता है। नियुक्तियों के संबंध में अन्य न्यायाधीशों से किए गए विचार-विमर्श में भी कार्य की गुणवत्ता, ईमानदारी, प्रतिष्ठा आदि को नहीं देखा जाता। इस प्रकार की कार्यप्रणाली से कॉलेजियम का नियंत्रण और संतुलन कमजोर पड़ता जा रहा है।
समाधान
- पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एन जे ए सी) के गठन की मांग की जाती रही है। आयोग से उम्मीद की जाती है कि यह न्यायिक नियुक्तियों में राजनैतिक हस्तक्षेप को रोकेगा, नियुक्तियों की गुणवत्ता में सुधार करेगा, चयन-प्रक्रिया में पारदर्शिता ला सकेगा एवं इन सबके माध्यम से लोगों में न्यायपालिका के प्रति विश्वास को सुदृढ़ कर सकेगा।
दुर्भायवश उच्चतम न्यायालय ने ऐसे किसी आयोग के गठन को असंवैधानिक घाषित कर दिया। इस निर्णय में आयोग को संविधान के पैमाने पर खरा उतारने के प्रयास की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गई।
उच्चतम न्यायालय ने कॉलेजियम में कुछ सुधार लाने का भी कोई प्रयत्न नहीं किया है। लोगों की अपेक्षाओं से उलट उच्चतम न्यायालय ने कॉलेजियम आधारित पुरानी नियुक्ति प्रक्रिया की ही वकालत करके, एक सशक्त, स्वतंत्र और पारदर्शी न्यायपालिका के स्वप्न को ध्वस्त कर दिया है।
एक प्रजातांत्रिक देश में, उसकी न्यायपालिका के आधार का अप्रजातांत्रिक होना एक प्रकार की विडंबना है। इसकी चयन-प्रक्रिया में सुधार की नितांत आवश्यकता है। इस संबंध में न्यायाधीश चेलमेश्वर ने कॉलेजियम से त्यागपत्र देकर अपना पहला विरोध दर्ज करके पारदर्शिता की मांग की है। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने भी एन जे ए सी पर चर्चा करते हुए सुधारों की बात कही है।
कॉलेजियम की कार्यपद्धति के लिए लिखित नियमावली का अभाव, चयन के लिए किसी निश्चित मानदंड का अभाव, पूर्व में लिए गए अपने ही निर्णयों को पलटने तथा मीटिंग के सीमित रिकार्ड का प्रकाशन आदि कुछ ऐसी विसंगतियां हैं, जो कॉलजियम को अपारदर्शी बनाए रखने के साथ-साथ उसे नीचे गिराती जा रही हैं।
अभी भी समय है, जब एन जे ए सी कानून में सुधार के साथ उसे व्यवहार में लाया जाए। ऐसा करके ही हम अपने देश की सच्ची सेवा कर सकते हैं।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अजित प्रकाश शाह के लेख पर आधारित। 18 जनवरी, 2019