उच्च शिक्षा संस्थानों को विश्व स्तरीय कैसे बनाएं ?
Date:02-08-18 To Download Click Here.
विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में देश का काई भी शिक्षा संस्थान वैश्विक रूप से उत्कृष्ट 100 संस्थानों में स्थान नहीं बना पाया है। इससे स्पष्ट होता है हमारी नियमन संस्थाएं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् अपनी कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।
- सवाल यह है कि इस स्थिति में परिवर्तन कैसे लाया जाए? अलग-अलग सरकारों ने अपने समय में कई प्रयास किए हैं। यू पी ए सरकार ने कई नए आई आई टी और आई आई एम खोले। एन डी ए सरकार ने 2017 में आई आई एम अधिनियम पारित किया, जिससे आई आई एम को स्वायत्तता दी जा सके। एक विचार इंस्टीट्यूट ऑफ एमीनेंस का भी रहा, जिसमें 20 संस्थानों का चयन करके उन्हें विश्व स्तरीय बनाए जाने का प्रयास किया जाएगा। इसके अंतर्गत उन्हें स्वायत्तता देने के साथ-साथ उसके दायरे में आने वाले सार्वजनिक संस्थानों को धनराशि दिए जाने की बात है। इसके अलावा आवेदन करने वाले संस्थान को एक करोड़ की प्रक्रमण संसाधन राशि के साथ अपना प्रोग्राम ऑफ एक्शन भी देना होगा।एक अच्छे पॉवर पांइट प्रसेन्टेशन के आधार पर किसी संस्थान की उत्कृष्टता को आंकने का काम उचित नहीं लगता। चयन प्रक्रिया के लिए नियुक्त चयन समिति के सदस्यों की योग्यता पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
- दूसरा प्रश्न उठता है कि 20 संस्थानों की उत्कृष्टता सूची में चयनित 5 संस्थानों- आई आई टी, दिल्ली, मुंबई, बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी; इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलुरु और मणिपाल संस्थान; में से कोई भी 100 वैश्विक संस्थानों मेंअपना स्थान क्यों नहीं बना पाया? इन संस्थानों में से यदि इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस को छोड़ दें, तो हम देखते हैं कि बाकी के संस्थानों की प्रतिष्ठा उनके शिक्षकों के कारण नहीं, वरन् उनके विद्यार्थियों के कारण बनी है। विश्व स्तरीय शिक्षकों का होना, किसी भी संस्थान को विश्वस्तरीय बनाने के लिए बहुत महत्व का होता है। हमारे आई आई टी और आई आईएम में केवल 10 प्रतिशत ऐसे प्राध्यापक हैं, जिनको वैश्विक पहचान प्राप्त है। जहाँ अमेरिका के अच्छे विद्यार्थी ही पी एच डी कार्यक्रम लेते हैं, वहीं हमारे अच्छे विद्यार्थी देश में शायद ही कोई पीएचडी कार्यक्रम लेते हों।
- आखिरी सवाल उठता है कि हमारे संस्थानों को उत्कृष्ट कैसे बनाया जाए? इसके लिए दो प्रकार के मॉडल हैं। (1) एक तो अमेरिका का मॉडल है, जहाँ अधिकतर निजी विश्वविद्यालयों ने सफलता प्राप्त की है। इसके पीछे वहाँ के धनी व्यापारियों का हाथ है, जो खुले हाथ इन संस्थानों को दान देते हैं। वहाँ के निजी विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता दी जाती है। इसके एवज में उन्हें पूरी तरह जवाबदेह भी होना पड़ता है। वे अपनी उत्कृष्टता स्थापित करने के लिए एक तरह से निष्ठुर होकर काम करते हैं। भारतीय संस्थानों के लिए ऐसा करना संभव नहीं हो पाता। (2) दूसरा मॉडल सिंगापुर-हांगकांग का है, जहाँ संस्थानों को उत्कृष्ट बनाने के लिए सरकार ही मुक्त हाथ से अनुदान देती है। इन विश्वविद्यालयों के डीन को विश्व से शिक्षक चुनने का पूर्ण अधिकार दिया जाता है। इनका वेतन भी विश्व स्तरीय होता है। लेकिन इन विश्वविद्यालयों की भी जवाबदेही तय कर दी जाती है।
उत्कृष्टता की स्थापना कोई सहज प्रक्रिया नहीं है। भारत में संस्थानों का नाम बदल देने या नाममात्र की स्वायत्तता दे देने से कोई हल नहीं निकलेगा। यह एक लंबी प्रक्रिया है, जिसके लिए कठोर तपस्या करनी होगी।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित वी. रंगनाथन के लेख पर आधारित। 23 जुलाई, 2018
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