‘आहत भावना’ के नाम पर

Afeias
28 Nov 2017
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Date:28-11-17

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संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर जिस प्रकार के विवाद चल रहे हैं, उससे लगता है कि यह हमारे देश के कुछ क्रोधी स्वभाव के व्यक्तियों का मान-मनौती करवाने से जुड़ा ही कोई प्रकरण है। ये समय-समय पर कभी फिल्म निर्माता, कभी लेखक तो कभी पत्रकारों को अपना निशाना बनाते रहते हैं, और हमारे नेता नैतिकता एवं मर्यादा की रक्षा करने वाले इन तथाकथित संरक्षकों को हल्के में लेते रहते हैं। स्वतंत्रता के विरोधी इन लोगों को रोके जाने की जरूरत है। ऐसा करने के लिए ‘आहत भावनाओं’ के भ्रमजाल को दूर किया जाना पहली आवश्यकता है।

हमारे देश में जब भी किसी सिनेमा, पुस्तक या संगीत वगैरह के कारण कोई भावनाएं आहत होने की बात उठाता है, तो जनता की प्रतिक्रिया और उस पर उठाए जाने वाले प्रश्न बेमानी होते हैं। अक्सर ऐसे मसलों पर पूछा जाता है कि क्या सचमुच उस लेखक या कलाकार ने कुछ अपमानजनक किया है? क्या उसके प्रतिबंध को लेकर की जाने वाली मांग उचित है? आदि। जबकि मूल प्रश्न होना चाहिए कि आहत भावनाओं के नाम पर किसी पर प्रतिबंध लगाने या उसका बहिष्कार किए जाने की बात में कितना सार है?हमारा संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर ‘यथोचित प्रतिबंध’ लगाता है। देश की सुरक्षा, विदेशों से मित्रतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाने वाली अभिव्यक्ति पर न्यायालय ऐसा प्रतिबंध लगा सकता है। संविधान में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि किसी की भावनाओं को आहत करने वाली किसी अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाया जाए। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि प्रतिबंध लगाने के लिए उचित कारण होना चाहिए, भावनात्मक नहीं। ऐसा केवल इसलिए नहीं कि यह संविधान में कहा गया है, बल्कि इसलिए भी कि ताकि इस पर निष्पक्ष बहस की जा सकती है, जबकि भावनाओं एवं अनुभूति पर नहीं की जा सकती।मेरियम वेबस्टर ‘भावना’ को एक ऐसा व्यवहार, विचार या निर्णय मानते हैं, जो अनुभूति से प्रेरित होता है, जबकि एक तर्कहीन धारणा या विश्वास या भावावेश की स्थिति या प्रतिक्रिया  को ‘अनुभूति’ माना जाता है।

यह पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि ‘भावना’ और ‘अनुभूति’ को परिभाषित करने का आधार आत्म-चेतना से जुडा होता है। यही कारण है कि कुछ हिन्दुओं को एम.एफ.हुसैन की कुछ कलाकृतियाँ प्रतिबंध के लायक लगती हैं, वहीं कुछ हिन्दुओं को नहीं लगतीं। ऐसे कोई वस्तुगत मानक नहीं हैं, जिनसे यह निर्णय लिया जा सके कि एक सहिष्णु व्यक्ति की भावनाओं की तुलना में प्रतिबंध की मांग करने वाले व्यक्ति की भावनाएं श्रेष्ठ हैं।

इंडियन पीनल कोड की धारा 295ए में ऐसे व्यक्ति को अपराधी मानने का प्रावधान है, जो जानबूझकर ‘किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है।’ ऐसी धाराएं संविधान की आत्मा के विरूद्ध लगती हैं। कानून और लोक प्रशासन को नए साँचे में ढाला जाना चाहिए। उन्हें वस्तुपरक वास्तविकताओं के अनुसार नया रूप दिया जाना चाहिए। भावना और आत्म चेतना से कविता वैसे ही जुड़ी हुई है, जैसे कि राजनीति दर्शन, न्यायशास्त्र, शासनकला और वस्तुपरकता से जुड़ा हुआ है। हांलाकि भारत में स्वतंत्रता के बाद से ही राजनीति की प्रकृति काव्यमय रही है। हमारे राजनीतिक दलों की घोषणाओं, भाषणों, वक्तव्यों और घोषणा-पत्रों में काव्य के प्रमुख तत्व भावना और दिखावटी नैतिकता-दृष्टव्य होते रहे हैं। दुख की बात यह है कि कारण और सौजन्यपूर्ण वातावरण में होने वाली बहस ने सार्वजनिक स्थान छोड़ दिया है। अब, बस भावनात्मकता को ही प्रमुखता दी जा रही है।

तार्किकता, चेतना और गुरुत्व के अभाव में भावना अब मनोविकार के रूप में काम कर रही है। आधुनिक शब्दों में कहें, तो वह ऐसे रोबोट के रूप में काम कर रही है, जिसके तार गलत तरीके से जोड़ दिए गए हैं, और इसके कारण आचरण मनमाना एवं खतरनाक हो गया है।एक बात चैंकाने वाली है कि लाखों-करोड़ों भारतीय पश्चिमी देशों की यात्रा के दौरान सभी धर्मों के प्रति लिखे गए अपशब्दों को पढ़ते, देखते और सुनते हैं। परन्तु आज तक किसी भारतीय सिक्ख, हिन्दु या मुस्लिम ने उन देशोंं में इसको लेकर कोई गुंडागर्दी नहीं की। फिर अपने देश में वे क्यों किसी को ‘आहत भावना’ के नाम पर मारने को उतारू हो जाते हैं? क्योंकि उन्हें पता है कि उन देशों में कानून के शिकंजे से बचना मुश्किल है। भारत जैसे उदार प्रजातांत्रिक देश में किसी को भी कुछ कहने या करने की तब तक छूट है, जब तक उससे किसी की हानि नहीं होती।हमारे देश में प्रजातंत्र सिर के बल खड़ा दिखता है। यहाँ के पेशेवर प्रदर्शनकारी किसी फिल्म निर्माता या किसी अन्य कलाकार को शारीरिक एवं आर्थिक हानि पहुँचाकर भी साफ बचकर निकल सकते हैं, अगर वे अपने इस कार्य को ‘आहत भावनाओं’ के अंतर्गत उचित ठहरा सकें। इससे भी ज्यादा कष्ट तब होता है, जब इन स्वतंत्रता के दुश्मनों को कोई वरदहस्त प्राप्त हो जाता है।

अब समय आ गया है, जब अपने प्रजातंत्र को सीधे खड़ा किया जाए। आहत भावना एवं अपमानित अनुभूति के विचार को नकार दिया जाए।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित रवि शंकर कपूर के लेख पर आधारित।