आर्थिक नीति में तुलनात्मक लाभ पर ध्यान दें
Date:17-08-18 To Download Click Here.
आज भारत को व्यापार के क्षेत्र में बाहरी और आंतरिक दोनों प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका ने भारतीय स्टील और एल्युमिनियम पर कर भार बढ़ा दिया है। हम यहाँ मुख्य रूप से आंतरिक चुनौतियों की बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ की शुरूआत वैश्विक व्यापार में भारत के योगदान को बढ़ाने के लिए की थी। परन्तु यह कार्यक्रम केवल भारत के लिए निर्माण करने तक सीमित हो गया है।
2003-04 से लेकर 2011-12 के बीच हमारी अर्थव्यवस्था में कुछ बड़े परिवर्तन हुए थे। इस बीच देश में वस्तु एवं सेवा का आयात 85 अरब डॉलर से बढ़कर 642 अरब डॉलर हो गया था। इसी बीच निर्यात भी 92 अरब डॉलर से बढ़कर 518 अरब डॉलर हो गया था। यह बताने का अर्थ यह समझना है कि निर्यात-आयात के विस्तार और सकल घरेलू उत्पाद में तेजी से होने वाली वृद्धि का आपसी संबंध क्या और कितना होता है।
- जैसे-जैसे हमने व्यापार का उदारीकरण किया, हमने उन उत्पादों का अधिक उत्पादन और निर्यात किया, जिनमें हमारी कीमत कम थी, और जिन उत्पादों की हमारी कीमत ज्यादा थी, उनका आयात किया।
- दुर्भाग्यवश हम आज यानि 2016-17 के सकल घरेलू उत्पाद में वस्तु व सेवा के आयात को 21.6 प्रतिशत एवं निर्यात को 19.6 प्रतिशत तक ही सीमित रखे हुए हैं। इसके परिणाम हमें तुरन्त नहीं मिलेंगे। परन्तु लंबी अवधि में यह अर्थव्यवस्था की गति को मंद करने का कारण बन सकता है।
- उन उत्पादों का घरेलू उत्पादन करना व्यर्थ है, जो हमें सस्ती कीमत पर वैश्विक बाजार से उपलब्ध हो सकते हैं।
- हमारा ध्यान आयात को नियंत्रित करने के बजाय, निर्यात का विस्तार करने पर होना चाहिए।
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ने बिल्कुल ऐसी ही नीति अपनाकर अपने देश को समृद्ध बना दिया। उन्होंने निर्यातकों की राह में आने वाली अड़चनों को प्राथमिकता पर दूर किया। एक दशक से कम समय में ही कोरिया का निर्यात कई गुना बढ़ गया। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पॉल सैमुअलसन ने भी तुलनात्मक लाभ की जोरदार वकालत की है। भारत को चाहिए कि वह अपनी आर्थिक नीति का इस प्रकार आंकलन करे, और ‘मेक इन इंडिया’ के मूल उद्देश्य को साकार करने का प्रयत्न करे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पनगढ़िया के लेख पर आधारित। 25 जुलाई, 2018