आम जन की त्रासदी: बढ़ता प्रदूषण
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प्रदूषण की मार झेल रहे राजधानी दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोगों को दीपावली पर और भी कठिन समय का सामना करना पड़ा। पार्टीक्यूलेट कणों से भरी वायु में दीपावली के पटाखों ने अग्नि में घी का काम किया और पर्यावरण की स्थिति युद्ध क्षेत्र जैसी हो गई। देश के कई शहरों का यही हाल रहा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की हाल ही की रिपोर्ट से पता चलता है कि विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में से 10 शहर भारत में हैं। इतना ही नहीं सन् 2010 में वायु प्रदूषण के कारण 6,27,000 भारतीयों की मृत्यु भी हुई है।
प्रदूषण से होने वाले भौतिक और शारीरिक नुकसान की बात तो अक्सर की जाती है, परंतु इससे पड़ने वाले भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों के बारे में हम कब सोचेंगे?
- निष्क्रियता का परिणाम
हम पर्यावरण में रहते हैं और यह हमारा अभिन्न अंग है। लेकिन हम एयर कंडीशनिंग, एयर प्यूरिफायर्स, हीटर या सन शेड वगैरह का प्रयोग करके पर्यावरण के प्राकृतिक स्वरूप में लगातार हस्तक्षेप करते रहते हैं। पर्यावरण से होने वाले दुष्प्रभावों को अक्सर चिकित्सकीय श्रेणी में रखा जाता है, और कभी-कभी कुछ खास मामलों में इस नुकसान की भरपाई भी की जाती है। पर्यावरण के संबंध में मुआवजे वाला प्रावधान हास्यास्पद लगता है, क्योंकि पर्यावरण के नुकसान से पारिस्थितिकीय और जनता को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई की ही नहीं जा सकती। यह ऐसी हानि होती है, जिसका खामियाजा वर्षों तक पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है। अब शायद हम कुछ चेत गए हैं और अंग्रेजी की इस कहावत (Prevention is better than cure) की राह पर चल पड़े हैं।
2013 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण के पतन के कारण भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद में 5.7 प्रतिशत की हानि उठानी पड़ी। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि पर्यावरण की गिरावट से अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है। गंगा और यमुना नदियों की सफाई में अरबों रुपये खर्च होने वाली मुद्रा इस बात का प्रमाण भी प्रस्तुत करती है।
- सामूहिक उत्तरदायित्व
देश में चलाया जा रहा स्वच्छ भारत अभियान जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का आवाह्न करता है, उसी प्रकार पर्यावरण की सुरक्षा का भार महज सरकार का नहीं बल्कि हर एक नागरिक की जिम्मेदारी बननी चाहिए। इसके लिए कुछ निम्न उपाय किए जा सकते हैं-
- लोग अपने वाहनों की प्रदूषण जांच समय-समय पर करवाएं।
- कूड़ा एवं पटाखे न जलाएं।ऐसा संभव करने के लिए जन प्रचार साधनों जैसे-घोषणा, विज्ञापन, पोस्टर आदि का सहारा लिया जा सकता है। पूरे देश के विद्यालय इस प्रचार अभियान में बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। विद्यार्थियों को अगर पेड़-पौधे लगाने, उनकी पत्तियों को नियमित धोने, घर के अंदर रहने वाले पौधे लगाने, वाहनों के कम प्रयोग के बारे में बताया जाएगा, तो वे निश्चित रूप से अपने परिवारों को भी जागरुक बना सकेंगे।
- सरकार को चाहिए कि किसानों को ठूंठ न जलाकर दूसरे माध्यमों से उसका उपयोग करने के लिए प्रोत्साहन स्वरुप कुछ राशि दे। फिलहाल ठूंठ से बिजली उत्पादन की प्रक्रिया चलाई जा रही है। परंतु त्रासदी यह है कि बहुत कम मात्रा में ठूंठ को इसमें खपाया जा सकता है। सरकार को इस ओर अधिक प्रयास करने होंगे।
- पटाखों के संबंध में लोगों को धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर सोचना होगा। पर्यावरण की कोई जाति और धर्म नहीं होता। लोगों को यह समझने की आवश्यकता है कि पटाखे जलाकर पाई जाने वाली आज की खुशी कल की त्रासदी बनेगी।
- भारतीय परिवेश वायु गुणवत्ता मानक (Nation Ambient Air Quality Standard)के अनुसार भारत के अनेक नगरों में इसकी तय सीमा पार हो गई है। मतलब यह कि प्रदूषण का स्तर काफी ज्यादा रहा। यह देखते हुए देश में काम कर रही प्रदूषण संस्थाओं ने समय के अनुसार उद्योगों का बंद करना, सड़कों पर छिड़काव, निर्माण कार्य पर अल्पकालिक रोक जैसे कदम उठाने पर विचार किया है।
- अगर प्रदूषण के संबंध में अन्य देशों के उदाहरण देखें, तो हम चीन से बहत कुछ सीख सकते हैं। चीन ने इस संबंध में गंभीर रुख अपनाते हुए ठोस कदम उठाए हैं।
- हमें भी त्वरित परिणामों का लक्ष्य रखते हुए इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की जवाबदेही तय करनी होगी और वायु की गुणवत्ता में सुधार की मात्रा का तय अवधि में लक्ष्य रखना होगा।
- इस राष्ट्रीय समस्या से निपटने के लिए समन्वित प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें कई तरह की संस्थाओं और व्यक्ति-विशेष को भी योगदान देना होगा, जिसका नेतृत्व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मार्गदर्शन में केन्द्र एवं राज्य सरकारें करेंगी।
- 1960 में पारिस्थितिकी विशेषज्ञ गैरेट हार्डिंग ने जल, वायु और भूमि प्रदूषण की स्थिति को देखते हुए इसे ‘आम जन की त्रासदी’ से परिभाषित किया था। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था, क्योंकि समाज का कोई विशेष वर्ग या व्यक्ति पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं है।
अब समय आ गया है, जब हम गिरते पर्यावरण से अपना पल्ला यह कहकर नहीं झाड़ सकते कि हमें क्या करना है। यह सामाजिक चिंता का विषय होने के साथ-साथ व्यक्तिगत चिंता का विषय भी है। यह हमारी भावनाओं और मनोविज्ञान के लिए एक भारी संकट के रूप में खड़ा है। अतः इसे हमें राष्ट्रीय प्राथमिकता के तौर पर लेना होगा।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित नेहा सिन्हा के लेख पर आधारित।