आत्मघाती कदम

Afeias
31 Dec 2019
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Date:31-12-19

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हाल ही में हैदराबाद में हुए गैंग-रेप के दोषियों के मुठभेड़ में मारे जाने की चर्चा जोरों पर है। न्यायिक दायरे से परे किसी ऐसी कार्यवाही को भारतीय परिभाषा में आसानी से आत्मरक्षा के नाम पर एनकांउटर’ कह दिया जाता है। इस पूरे प्रकरण में ऐसा कुछ भी नहीं छोड़ा जाता, जिससे कि यह झूठा या नाटकीय प्रमाणित हो सके।

नृशंस बलात्कार के बाद उसे ढंकने के इरादे से की गई हत्या के बाद देश में शायद ही किसी को इस बात की परवाह है कि उन चारों दोषियों को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर दिया गया या नहीं। सबने इस सत्य का आवरण ओढ़ लिया है कि वे चारों उस अपराध के दोषी ही थे, जिसका उन पर आरोप था। मतभेद सिर्फ इस बात पर था कि उन्हें कौन सी सजा दी जानी चाहिए। अधिकांश जनता उन्हें मौत की सजा ही देना चाहेगी। फिर भी यह न्यायालय के ऊपर छोड़ा जाना चाहिए कि उन्हें फांसी के तख्ते पर लटकाना है या नहीं।

एक सुबह पुलिस वालों ने इन दोषी जनों को मारने का श्रेय ले लिया। दूसरे शब्दों में कहें, तो कानून को कायम रखने के लिए जिम्मेदार लोगों ने ही कानून तोड़ दिया।

यहाँ प्रश्न उठता है कि इन स्थितियों में कानून का क्या स्थान है?

न्यायिक दृष्टि से यह एक सैद्धांतिक प्रश्न नहीं है। न ही यह मृत्युदण्ड पर घृणित या उदार तथ्य है, क्योंकि ‘ऐसा जीवन जो राज्य द्वारा नहीं दिया गया है, राज्य द्वारा लिया भी नहीं जा सकता, अगर एक समाज चाहे, तो सरकार को यह अधिकार दे सकता है। दरअसल, समस्या की जड़ कहीं और है।

जघन्य अपराध या विरलतम अपराध का अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ हो सकता है। कुछ के लिए, फतवा के आमंत्रण टाइप की ईश-निंदा ही मौत के घाट उतारने के लिए पर्याप्त होती है। कुछ अन्य के लिए ‘राज्य का शत्रु’ होने का आरोप लगाया जाना फांसी का खुला आमंत्रण है। कुूछ ऐसे भी हैं, जो इस देश की सामुदायिक गतिविधि में लिंचिंग को एक ऐसा अच्छा माध्यम समझते हैं, जिसका इस्तेमाल किसी भी समुदाय के अपमान के लिए किया जा सकता है।

मृत्यु दंड को आउटसोर्स कर देना अराजकता को आमंत्रित करने के लिए पर्याप्त है। यहाँ तो पुलिस बल ने न्यायालय को दरकिनार करके, मृत्यु-दंड सुनाए जाने से पहले ही कतार तोड़ दी है। एनकाउंटर में मरने-मारने की बात हमारी सामूहिक चेतना में संदिग्ध आतंकवादियों के साथ जुड़ी हुई है। इनसे जुड़ी घटना पर, मानवाधिकारियों के अलावा, कोई भी ध्यान नही देता है। ऐसे मामलों में लोग खुलकर खुश होते हैं। सोचते हैं कि चलो एक लंबी अदालती कार्यवाही, साक्ष्यों की कमी, राजनैतिक अवरोध, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरोध आदि के कारण जो मामला खिंचता चला जाता, उस शैतान का सही अंत हो गया।

हमने ऐसी पुलिस को निगरानी का कार्यभार सौंप दिया है, जो मौलिक रूप से निगरानीकर्ता बनती जा रही है। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह भूमिका राज्य अनुमोदित कानून को निरर्थक बना रही है। न्यायालय के यह बताने से पहले ही कि उन्हें मृत्युदंड क्यों दिया जाना चाहिए, अगर अपराधियों को दंड दिया जा रहा है, तो हमें न्यायालय और पुलिस की क्या जरूरत है?

भारत के मुख्य न्यायाधीश ने भीड़ के शासन की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर सजग किया है। उन्होंने त्वरित एवं सक्षम-न्याय की जरूरत पर बल देने के साथ ही कहा, ‘मुझे नहीं लगता है कि न्याय कभी भी झटपट हो सकता है या उसे ऐसा होना चाहिए। न्याय को कभी भी प्रतिशोध का रूप नहीं लेना चाहिए। मेरा मत है कि न्याय अगर प्रतिशोध बन जाता है, तो न्याय का चरित्र ही खो देता है।’

उन चारों दोषियों को न्यायपालिका के द्वारा मृत्युदंड दिया जाना था। ऐसा होने पर वही उद्देश्य तुरन्त पूरा होता, जो कानून से बाहर पूरा हुआ। इस एनकाउंटर ने बहुत से सही सोच वाले व्यक्तियों को यह सोचने पर बाध्य किया होगा कि भारत में न्यायपालिका की क्या आवश्यकता है। उनकी सोच की रेखा शायद इसी दिशा में बढ़ते हुए अगला सवाल यह करे कि आखिर भारत देश की ही क्या जरूरत है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित इंद्रजीत हाजरा के लेख पर आधारित। 9 दिसम्बर, 2019

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