अनुच्छेद 370 और 35 ए की क्या आवश्यकता है ?

Afeias
29 Mar 2019
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Date:29-03-19

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जम्मू और कश्मीर, जिसे ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान आमतौर पर सिर्फ कश्मीर कहा जाता था, एक अद्र्ध स्वतंत्र रियासत थी। इस पर हिन्दू डोगरा राजा का राज्य था। इस विविधता पूर्ण प्रदेश की 80 प्रतिशत जनता मुसलमान थी। विभाजन के बाद के गृह युद्ध में कश्मीर इस बात पर अड़ा रहा कि उसे धर्म के आधार पर विभाजन नहीं चाहिए। इस्लाम के 1400 साल के इतिहास में यह पहली घटना थी, जब किसी मुस्लिम बहुल रियासत ने अपने को महाद्वीप के आकार के एक गैर-मुसलमान देश के साथ खड़ा कर दिया था।

संविधान के अनुच्छेद 370 में, जो जम्मू-कश्मीर के मूल निवासियों की व्याख्या करने के साथ-साथ उन्हें विशेष अधिकार प्रदान करता है, 1954 में राष्ट्रपति के विशेष आदेश के द्वारा अनुच्छद 35ए जोड़ा गया। इस जोड़े गए अनुच्छेद से जम्मू-कश्मीर के मूल निवासियों को रोजगार, राज्य में संपत्ति खरीदने, राज्य के किसी भी भाग में बसने, छात्रवृत्ति प्राप्त करने और राज्य सरकार द्वारा दी गई किसी भी प्रकार की सहायता प्राप्त करने का अधिकारी बना दिया गया। इस विधान को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने की स्थिति में भी रद्द नहीं किया जा सकता।

इस खंड को लेकर पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दर्ज की गई थी। इसमें माना गया था कि जम्मू-कश्मीर का यह खंड भेदभावपूर्ण है। अतः 35ए को असंवैधानिक करार दिया जाना चाहिए। यह कोई पहला अवसर नहीं है, जब राज्य के स्थानीय कानून को चुनौती दी गई हो।

दरअसल, यह कानून तब लाया गया था, जब राज्य के सरकारी पदों और भू-संपत्ति पर कश्मीरी पंडितों और पंजाबी मुस्लिम अभिजात वर्ग के एकाधिकार का खतरा मंडराने लगा था। स्वतंत्रता के पश्चात्, जम्मू-कश्मीर के निवासियों के लिए अपने अस्तित्व की रक्षा करने का माध्यम यही एक कानून था, जो उन्हें विशेषाधिकार देता था। परन्तु देश के अन्य भागों के लोगों ने उनकी इस विवशता को न समझते हुए उनसे कोई सहानुभूति नहीं दिखाई। इसलिए इस विधान पर बार-बार प्रहार करने का प्रयत्न किया गया। लेकिन हर बार, यहाँ तक कि पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने भी इसकी जरूरत को मान्यता प्रदान की।

बाकी सभी चुनौतियों में केन्द्र सरकार मामले को न्यायालय पर छोड़ देती थी, परन्तु इस बार केन्द्र सरकार के बढ़-चढ़कर भाग लेने से ऐसा लगने लगा है कि सरकार अनुच्छेद 370 के अंतर्गत 35ए को खत्म करना चाहती है। उच्चतम न्यायालय की सुनवाई में उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के इस प्रावधान पर कोई भी निर्णय लेने से पहले कुछ बातों पर विचार किया जाना आवश्यक है।

  • असम में संवैधानिक परिवर्तन करते हुए वहाँ के नागरिकों की संवेदना के नाम पर 40 लाख लोगों के नागरिकता अधिकार को समाप्त किया जा रहा है। यहाँ सवाल उठता है कि अगर देश का अपना एक नागरिकता रजिस्टर है, तो किसी राज्य का ऐसा रजिस्टर क्यों नहीं बनाया जा सकता? यदि बांग्लादेशियों, मूलतः पूर्वी पाकिस्तानियों को बाहर निकाला जा सकता है, तो कोई यह क्यों जोर देता है कि पश्चिम पाकिस्तानियों को अपने कानून के उल्लंघन में किसी राज्य की नागरिकता दी जानी चाहिए?
  • जम्मू-कश्मीर के लिए बने विशेष कानून ने राज्य की बेहतर रक्षा की है। इसके अभाव में ज्यादा बुरी हालत हो सकती थी। जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम और गैर मुस्लिम जनसंख्या का पश्चिम बंगाल की तुलना में बिल्कुल उल्टा अनुपात है। यहाँ के गैर मुसलमान ही प्रशासनिक सेवाओं में अधिक संख्या में हैं। राज्य सचिवालय में सभी धर्मों के लोगों का बराबर प्रतिनिधित्व है। राष्ट्रीय संस्थानों में ऐसा देखने को नहीं मिलता। यहाँ तक कि डेड़ लाख की बौद्ध आबादी वाले लद्दाख की भी एक सीट है। अगर जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटा दिया गया, तो देश की बाकी जनता की भीड़ में ये छोटी-छोटी कश्मीरी ईकाईयां खो जाएंगी।
  • कश्मीरियों का अपनी जमीनों पर से अधिकार कमजोर पड़ जाएगा।
  • विशेष दर्जा समाप्त होते ही सरकार यहाँ की जनसांख्यिकी में परिवर्तन करके जनमत संग्रह का प्रयत्न करेगी। इसमें राज्य के मूल निवासियों के हितों का ध्यान नहीं रखा जा सकेगा।
  • राज्य का विशेष दर्जा समाप्त होते ही कश्मीर में शांति के प्रयासों पर विराम लग जाएगा। इसका प्रभाव दक्षिण एशिया की शांति पर पड़ेगा।

अनुच्छेद 370 को हटाने के उद्देश्य से कश्मीर में लगाए गए राष्ट्रपति शासन से कश्मीरी और भी अलग-थलग पड़ जायेंगे। एक ऐसी पहुंच की आवश्यकता है, जो कश्मीरियों के दिलों को जीतकर उन्हें भारत का अभिन्न हिस्सा बना दे। ऐसा होने की स्थिति में अनुच्छेद 370 और 35ए अपने आप ही बेमानी हो जाएंगे।

समाचार पत्रों पर आधारित।

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