अटॉर्नी-जनरल की शक्तियां

Afeias
04 Feb 2019
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Date:04-02-19

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हाल ही में भारत के अटॉर्नी-जनरल के.के.वेणुगोपाल ने सबरीमाला मंदिर से संबंधित कुछ वक्तव्य दिए थे। अटॉर्नी जनरल या महान्यायवादी के इन वक्तव्यों को लेकर शासन और न्याय में उनकी भूमिका को लेकर कुछ सवाल खड़े हो गए। इस घटनाक्रम को लेकर इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि आखिर अटॉर्नी जनरल का संवैधानिक दर्जा क्या है? उसको कितनी स्वतंत्रता है ? सरकार के साथ उसके संबंधों का क्या रूप है ? क्या वह न्यायालय में सरकार की पैरवी करने वाला एक वकील मात्र है, या इससे बहुत ऊपर एक संस्था है?

  • संविधान के अनुच्छेद 76 में अटॉर्नी जनरल कार्यालय के बारे में वर्णन मिलता है। राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह किसी भी ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए नियुक्त कर सकता है, जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने की योग्यता रखता हो।
  • देश का अटॉर्नी-जनरल राष्ट्रपति द्वारा सौंपे गये किसी कानूनी मुद्दे पर सरकार को सलाह दे सकता है। उसे देश के किसी भी न्यायालय में सुनवाई का अधिकार प्राप्त है। इसका कार्यकाल व वेतनमान राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है।
  • इस समस्त प्रक्रिया में राष्ट्रपति को सामान्यतः मंत्रिपरिषद् की सलाह एवं सहायता लेना अनिवार्य होता है।

अतः प्रभावशाली रूप में तो अटॉर्नी-जनरल का चयन, नियुक्ति काल, वेतनमान आदि मंत्रि-परिषद् की इच्छा पर निर्भर करता है। क्या इससे यह सिद्ध होता है कि अटॉर्नी जनरल का पक्षकार, सरकार होती है?

  • इस बात को स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि संविधान में ‘अटॉर्नी-जनरल फॉर इंडिया’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि इस पद का सरोकार भारत देश के लोगों से है।
  • केबिनेट के किसी भी निर्णय (संवैधानिक या असंवैधानिक) को राष्ट्रपति एक ही बार अस्वीकृत कर सकता है। लेकिन इससे सरकार मनमाने रूप से कानून नहीं बना सकती।
  • हमारे तंत्र में, ए जी को उस राजनीतिक कार्यकारिणी के उच्च संवैधानिक कार्यालय का निर्वहन करना होता है, जो उसे नियुक्त करती है।

संविधान सभा में चल रहे वाद-विवाद में के.टी.शाह ने अटॉर्नी जनरल के वेतन को कानून द्वारा निश्चित किए जाने का प्रस्ताव रखा था। उस समय तक यह स्पष्ट हो गया था कि हम उस ब्रिटिश तंत्र का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, जहां अटॉर्नी जनरल को केबिनेट सदस्य का दर्जा प्राप्त है। अतः शाह की परिकल्पना में अटॉर्नी जनरल को न्यायपालिका की तरह स्वतंत्र रखा जाना था।

  • ‘अटॉर्नी जनरल फॉर इंडिया’ जैसे शब्द इस परिकल्पना को साकार करते हैं। अर्थात् महान्यायवादी, सरकार के प्रति उत्तरदायी न होते हुए देश की जनता के प्रति उत्तरदायित्व रखता है। अतः संविधान उससे यह अपेक्षा रखता है कि वह स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकारी हो, एवं सरकार को विवेकपूर्ण सलाह दे। उसे इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि उसकी नियुक्ति करने वाली सरकार कैसी अपेक्षा रखती है। इस बिन्दु पर आकर महान्यायवादी का कार्य कठिन और संवेदनशील हो जाता है।
  • अटॉर्नी जनरल के रूप में उस व्यक्ति को चुना जाता है, जो सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने की योग्यता रखता हो। अतः अटॉर्नी जनरल को उस निर्णायक या केन्द्रीय संस्था की तरह की भूमिका निभानी चाहिए, जो सत्य बोल सके, और सरकार को संविधान के अनुरूप चलने में उसकी सहायता कर सके।

डॉ० अम्बेडकर ने जैसा कहा है कि, ‘‘कोई संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, जब तक उसे क्रियान्वित करने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे, वह बेकार ही सिद्ध होगा।’’ हमारा संविधान विश्व के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक है। उच्च संवैधानिक कार्यालयों में पदस्थ लोगों का कर्तव्य है कि इसकी गरिमा को बनाए रखें। अटॉर्नी-जनरल कार्यालय भी ऐसी ही एक संस्था है, जो देश को समर्पित है। उसकी उच्चता को बनाए रखा जाना चाहिए।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सी.राज कुमार और खगेश गौतम के लेख पर आधारित। 4 जनवरी,2019