मुकदमों के निपटान की समय-सीमा का मामला

Afeias
03 Jan 2019
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Date:03-01-19

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हमारे देश में अनेक मामले ऐसे हैं, जो न्यायालयों में दशकों तक न्याय की बाट जोहते पड़े रहते हैं। खासतौर पर यौन हिंसा से संबंधित मामलों पर त्वरित कार्यवाही की लगातार मांग किए जाने के बावजूद, व्यावहारिक स्तर पर इनका जल्दी निपटान संभव नहीं हो पा रहा है। ऐसा क्यों है?

सरकारी प्रयास

  • बहुत दबावों के बाद सरकार ने अप्रैल में बलात्कार के मामलों के जल्दी निपटारे के लिए एक निश्चित समय सीमा निर्धारित करते हुए अध्यादेश निकाला। इसमें कहा गया है कि ऐसे मामलों की जाँच और ट्रॉयल, प्रत्येक के लिए 2-2 माह की समय सीमा होगी। धरातल के स्तर पर ऐसा नहीं हो रहा है।
  • इसी प्रकार चेक बाउंस होने के मामलों के ‘द निगोशिएबिल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम, 1881 के अंतर्गत छः माह में निपटाने का कानून बनाया गया था। परन्तु वास्तविकता में यह मामले औसतन 4 वर्ष तक चलते रहते हैं?
  • यौन अपराध अधिनियम, 2012 के अंतर्गत बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराध मामलों को अधिकतम एक वर्ष की अवधि के अंदर ही निपटाने का कानून बनाया गया। सेंटर फॉर चाइल्ड एण्ड लॉ के एक शोध से पता चलता है कि महाराष्ट्र व कर्नाटक जैसे अनेक राज्यों में ऐसे मामले बहुतायत में लंबित पड़े हुए हैं।
  • अनेक राज्यों ने केस फ्लो मैनेजमेंट रूल्स पारित किया है, जिसमें अलग-अलग प्रकार के मामलों के लिए अलग-अलग समय-सीमा तय की गई है। लेकिन इसका पालन नहीं किया जाता है।

अलग-अलग कानूनों में मामलों के निपटान की समय-सीमा के बावजूद इसका पालन न किए जाने के पीछे कुछ मुख्य कारण हैं।

(1) समय-सीमा का अनुपालन न किए जाने पर कोई गंभीर कदम नहीं उठाए जाते।

(2) समय-सीमा ही अव्यावहारिक रूप से तैयार की गई है। धरातल पर आने वाली बाधाओं और समस्याओं के लिए समय का इसमें कोई ध्यान नहीं रखा गया है।

(3) न्यायाधीशों को केवल न्याय की गति का नहीं, बल्कि उसकी गुणवत्ता का भी ध्यान रखना पड़ता है। अतः न्यायाधीशों पर दबाव नहीं डाला जा सकता।

अच्छा तो यही होगा कि अलग-अलग तरह के मामलों की समय-सीमा को लेकर वैज्ञानिक दृष्टि से काम किया जाए, और फिर उन्हें तय करके न्यायाधीशों को उसके लिए जवाबदेह बनाया जाए। इससे दो तरह के लाभ होंगे। (1) इससे न्यायिक तंत्र में दृढ़ता आएगी, और (2) इससे वादी को मामले के एक निश्चित सीमा में निपटने की उम्मीद बंध सकेगी।

ऐसा करना असंभव नहीं है। देश में कई उच्च न्यायालय, ऐसे पायलट प्रोजेक्ट चला रहे हैं, ताकि मामले को निपटाने की समयावधि को समझा जा सके। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में कानून मंत्रालय एवं अन्य राज्य भी समय-सीमा को लेकर कुछ ठोस कार्य करेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अर्णव कौल के लेख पर आधारित। 19 नवम्बर, 2018