मनरेगा बनाम न्यूनतम आय योजना

Afeias
09 May 2019
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Date:09-05-19

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भारत में न्यूनतम बुनियादी आय के विचार ने तूल पकड़ लिया है। 20 प्रतिशत सबसे अधिक गरीब जनसंख्या के लिए बुनियादी आय की काँग्रेस की घोषणा से यह जनसाधारण के बीच विचार-विमर्श का मुद्दा बन गया है।

अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के अनुसार प्रतिमाह 6,000 की राशि से किसी गरीब परिवार के मासिक खर्च का 60 प्रतिशत से अधिक वहन किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि इस योजना के दायरे में आने के लिए अनेक लोग विभिन्न प्रकार के प्रपंच कर लेंगे।

दूसरे, यह योजना मनरेगा की तरह काम के अवसर उपलब्ध नहीं कराती है। मनरेगा में शामिल लोगों को आय का एक वैकल्पिक साधन दिया जाता है। एक हद तक यह सुनिश्चित करता है कि जो वास्तव में काम करके कमाने को मजबूर हैं, या काम ढूंढ रहे हैं, उन लोगों को इस योजना से मदद मिल सके।

काँग्रेस द्वारा प्रचारित न्यूनतम आय योजना के समर्थकों का मानना है कि योजना के लाभार्थियों की पहचान, स्थानीय सरकार की मदद से या एटीएम साइन-इन जैसे किसी तरीके से की जा सकती है। यह व्यवस्था उचित नहीं लगती। इस योजना का लाभ लेने वालों में से कम गरीब परिवारों को निरूत्साहित किया जाना चाहिए। योजना का लाभ उठाने के लालच  को कम करके ही इसमें होने वाली धोखेबाजी को रोका जा सकता है। यह तभी संभव हो सकता है, जब न्यूनतम आय राशि और भी कम तय की जाए।

न्यूनतम आय योजना के समर्थक चार आधारों पर इसकी वकालत कर रहे हैं।

  1. कुछ तो ऐसे हैं, जो देश-विदेश में चल रही इस प्रकार की योजनाओं की सफलता के उदाहरण दे रहे हैं।
  2. कुछ ऐसे भी हैं, जो न्यूनतम आय योजना के आने से लोगों की काम करने की इच्छा को हतोत्साहित करने वाली धारणा का विरोध करते हैं।
  3. एक पक्ष गरीबों के लिए न्यूनतम आय से भी अच्छी किसी योजना का पक्षधर है।
  4. कुछ निराशावादी तो ऐसे हैं, जो रोजगार के अवसर उत्पन्न करने के विचार को छोड़ देना ही उचित समझते हैं। उन्हें अब इसमें कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती। इसलिए वे आय राशि के हस्तांतरण को ही सर्वोत्तम रास्ता मानते हैं।

इस मामले में सबसे अधिक संशयवादी वर्ग करदाता, के कुछ सामान्य प्रश्नों के उत्तर तो सरकार को देने ही होंगे। इस वर्ग का प्रश्न है कि क्या योजना की घोषणा से पहले इसमें आने वाली लागत और उसके स्रोतों के बारे में मूल्यांकन किया गया? न्यूनतम आय के समर्थक अर्थशास्त्री पिकेटी का कहना है कि इस योजना की सबसे बड़ी कमी यही है कि काँग्रेस ने इस पर गहन समीक्षा नहीं की है।

आर्थिक रूप से जकड़ी हुई अर्थव्यवस्था में ऐसी योजनाओं की पूर्ति के लिए कर को बढ़ाया नहीं जा सकता। करों को बढ़ाने से विकास-दर अवरूद्ध हो जाएगी। तो क्या न्यूनतम आय योजना के प्रवत्तकों ने रोजगार के अवसर बढ़ाने और आय की गारंटी के बीच कुछ समझौताकारी समन्वयन की नीति सोची है ? क्योंकि जब निर्माण जैसे कार्यों के लिए अकुशल मजदूरों की जरूरत आती है, तो न्यूनतम आय योजना की परिधि में आने वाला वर्ग ही इसके योग्य होता है।

सार्वजनिक निर्माण कार्यों में ही निचले स्तर के सबसे ज्यादा रोजगार उत्पन्न किए जाते हैं। अगर यह सत्य है, तो जनता की गाढ़ी कमाई को रोजगार के अवसरों के निर्माण के स्थान पर मुफ्त वितरण में लगाने की योजना क्यों बनाई जा रही है? ऐसी योजना लाने के बजाय क्यों न मनरेगा का विस्तार किया जाए ? अभिसरण के मॉडल में मनरेगा का विस्तार करने वाले कार्यक्रमों को अभी तक लागू क्यों नहीं किया गया ? अगर ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के बारे में पूर्वाग्रह बन गए हैं, तो इसका विस्तार शहरी विकास के लिए क्यों नहीं किया गया ? यह मात्र रोजगार देने का प्रश्न नहीं है, बल्कि हाशिए पर जीवन बिताने वाले समाज के वंचित तबके को समाहित करने का भी मुद्दा है।

रोजगार के अवसर उत्पन्न करने को दुश्कर कार्य बताना बहुत ही बचकानी बात लगती है। देश में रियल एस्टेट के कारोबार के मंदे होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि निचले स्तर के निर्माण कार्यों का अवसर समाप्त हो गया है।

पिछले कुछ वर्षों में हुई देश की प्रगति के बावजूद, बुनियादी ढांचों की बहुत कमी है। पर्यटन के साथ-साथ सौंदर्य और स्वास्थ्य से जुड़े क्षेत्रों में भी रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। क्या हम इन क्षेत्रों का विकास इस प्रकार से नहीं कर सकते कि अधिक से अधिक कार्यबल को खपाया जा सके?

स्वचालन और विघटन की अनेक दलीलों के बावजूद विनिर्माण उद्योग में भी बहुत संभावनाएं हैं। इन सबको विकास करने की ओर कदम बढ़ाया जाना चाहिए।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अमीक बरुआ के लेख पर आधारित। 23 अप्रैल, 2019