भारत में विनिर्माण का सुनहरा भविष्य
Date:17-12-18 To Download Click Here.
हमारे देश के विकास के लिए विनिर्माण और सेवाएं, दो आधार-स्तंभ हैं। सेवा-क्षेत्र में अपनी मजबूती बनाए रखने के साथ-साथ हमें श्रम आधारित विनिर्माण में अपनी पकड़ बढ़ानी है। इन दो उद्योगों के बाद तीसरा नंबर कृषि का आता है, जिसमें हमारे देश का 45 प्रतिशत कार्यबल संलग्न है। कृषि पर आश्रित परिवारों के साथ समस्या यह है कि देश के लगभग आधे खेत आधे हेक्टेयर से भी कम हैं, और ये पाँच व्यक्तियों के परिवार का खर्च नहीं चला पाते। ऐसे परिवारों में से अगर एक व्यक्ति भी विनिर्माण या सेवा क्षेत्र में नौकरी पा जाए, तो जीवन चल निकलता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या विनिर्माण और सेवा-क्षेत्र में इतनी संभावनाएं हैं कि वे इतने रोजगार के अवसर उत्पन्न कर सकें ?
कुछ लोगों का तर्क है कि केवल सेवा-क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जो देश को बहुत आगे ले जा सकता है। सॉफ्टवेयर और वित्त, दो ऐसे सेवा-क्षेत्र हैंख् जिनमें भारत अग्रणी है। पर्यटन, परिवहन एवं निर्माण ऐसे क्षेत्र हैं, जो विनिर्माण के आधार पर अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। इन क्षेत्रों में लाखों ऐसे लोगों को रोजगार मिल सकता है, जो सीमित या बिना कौशल वाले हैं।
विनिर्माण क्षेत्र में ऐसी दो चुनौतियां हैं, जो संपूर्ण विश्व के सामने प्रश्न चिन्ह खड़े कर रही हैं। संरक्षणवाद और स्वचालन या ऑटोमेशन के चलते विनिर्माण में रोजगार के अवसर उत्पन्न करने संबंधी आशंकाएं जन्म ले रही हैं।
- इन आशंकाओं के पक्ष में पहला तर्क यह दिया जा रहा है कि जब दक्षिण कोरिया, ताईवान और चीन में परिवर्तन हुए, तब वैश्विक व्यापार खुला हुआ था। इन देशों ने बड़े पैमाने पर वस्तुओं का निर्यात किया और लाभ कमाया। परन्तु वर्तमान स्थितियों में बढ़ते संरक्षणवाद के कारण ऐसा किया जाना संभव नहीं है।
अमेरिका और चीन के बीच बढ़े व्यापार विवाद के बावजूद उरूग्वे वार्ता समझौते के चलते आज वैश्विक व्यापार उस समय से ज्यादा खुला हुआ है, जितना कि दक्षिण कोरिया और चीन के परिवर्तनकारी दौर में था।
पूरे विश्व में आज व्यापार-निर्यात लगभग 15 खरब डॉलर है। चीन के 12 प्रतिशत व्यापार-निर्यात की तुलना में भारत का मात्र 1.6 प्रतिशत है। मान लें कि अगर आने वाले वर्षों में यह एक या दो खरब डॉलर कम भी हो जाए, तब भी भारत में इतनी संभावनाएं हैं कि वह अपना व्यापार-निर्यात 5 प्रतिशत तक तो बढ़ा ही सकता है। ऐसा कहना बिल्कुल भी अव्यवहार्य नहीं है। सन् 2000 के आसपास चीन का व्यापार-निर्यात भी 4 प्रतिशत हुआ करता था।
- दूसरी आशंका स्वचालन को लेकर है। तकनीक में प्रगति के साथ ही अधिकांश उत्पादन स्वचालित तरीके से किया जा रहा है। ऐसा होने से विनिर्माण का लाभ विकसित देशों को मिलने लगेगा। ऐसा अनुमान कुछ बढ़ा-चढ़ा लगता है।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण एडीडास है। कंपनी ने स्नीकर्स के विनिर्माण को पूर्णतः स्वचालित करते हुए जर्मनी में एक फैक्टरी लगाई है। वर्तमान में, 36 करोड़ जोड़ी के कुल उत्पादन में से केवल एक करोड़ जोड़ी जूते ही स्वचालन के माध्यम से तैयार होते हैं। इसके अलावा एडीडास के सीईओ का यह भी कहना है कि, ‘‘अगले 5 से 10 वर्षों में स्नीकर्स का पूर्ण स्वचालन से उत्पादन करना संभव नहीं हो पाएगा।’’ साथ ही व मानते हैं कि विनिर्माण का स्थानांतरण यूरोप में हो पाना संभव नहीं है, क्योंकि वहाँ के उद्योग विश्व की मांग की तुलना में पूरी मात्रा नहीं बना सकते। वे आगे भी कहते हैं कि, ‘‘अमेरिका भले ही अपने राजनैतिक हितों के चलते विनिर्माण को वापस सक्रिय करने की बात कर रहा हो, परन्तु यह पूरी तरह से असंगत है, और व्यावहारिक तौर पर ऐसा नहीं हो सकता।’’
जूतों के साथ-साथ यही सिद्धाँत कपड़ों आदि पर भी लागू होता है। कपड़ों का बाजार तो वैसे ही विशाल है। केवल एशिया में ही 4.6 अरब लोगों के लिए कपड़ों की पूर्ति की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में चीन तेजी से निर्यात बढ़ाने वाला है। भारत को भी इस अवसर का लाभ उठाते हुए रोजगार के लाखों अवसरों को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।
स्वचालन के बाद भी उद्योगों में बहुत से काम श्रमिकों द्वारा ही पूरे किए जाते हैं। दूसरे, बहुत से काम ऐसे हैं, जो तकनीकी रूप से संभव होते हुए भी व्यावसायिक स्तर पर अलाभकारी ही रहते हैं। अतः भारत को विनिर्माण उद्योग में अपना सर्वोत्तम करना चाहिए। इससे सेवा-क्षेत्र भी समृद्ध हो सकेगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पन्गढ़िया के लेख पर आधारित। 14 नवम्बर, 2018