पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का चुनाव विवेकपूर्ण होना चाहिए
Date:12-10-17
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हाल ही में केन्द्र सरकार ने मेट्रो रेल के संबंध में नई नीति की घोषणा की है। इसके अंतर्गत मेट्रो से जुड़ी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप वाली परियोजनाओं को ही सरकारी सहायता दिए जाने की बात कही गई है। इस नीति में निजी समूह ही मेट्रो रेल सेवाओं के लिए जिम्मेदार होगा। इतना ही नहीं, इसके लिए राज्य सरकारों को भी सक्रिय भूमिका निभाते हुए धन के नए स्रोतों की खोज करनी होगी।
- इस नीति की कुछ खास बातें सराहनीय हैं। परन्तु विश्व में मेट्रो रेल परियोजनाओं में पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशि की विफलता को देखते हुए ऐसा लगता है कि भावी योजनाओं के लिए इसे अनिवार्य करना कहाँ तक ठीक है।
- पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप एक ऐसा साधन है, जिसे सरकार जरूरी बुनियादी ढांचों या सेवाओं के लिए उपयोग में लाती है। इन तत्वों को पूरा करने के लिए सरकार कई बार इसे पूर्ण रूप से सार्वजनिक क्षेत्र को सौंप देती है और कई बार निजी क्षेत्र को (यानि निजीकरण करना)। पीपीपी इनके बीच का रास्ता है, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र आपस में साझेदारी करते हुए योजना से जुड़े खतरों में भी साझेदारी करते हैं।
- पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप किसी योजना के लिए पहले से निर्धारित प्रावधान नहीं है, बल्कि इसका सहारा सरकार तभी लेती है, जब उसे लगता है कि यह हमारे पुराने सार्वजनिक विभागों की तुलना में सस्ता और अच्छा काम कर सकती है। इसके लिए सरकार ‘वैल्यू फॉर मनी’ जैसी समीक्षा करती है। इस समीक्षा में परियोजना की शुरुआत से लेकर अंत तक उसके संचालन और रखरखाव पर आने वाले खर्च का आकलन किया जाता है। समीक्षा में इस बात को विशेष तौर पर देखा जाता है कि पीपीपी के द्वारा करदाताओं के धन का उचित उपयोग हो रहा है या नहीं।
- वैल्यू फॉर मनी’ की सफल समीक्षा के उदाहरण भारत में भी देखने में आते हैं। आंध्र प्रदेश सरकार ने विमानतल को जाने वाले ‘एक्सप्रेस वे’ का ठेका एक निजी समूह को इसलिए नहीं दिया, क्योंकि वह इस मार्ग के बदले रियल एस्टेट के विकास के लिए आसपास की भूमि चाहता था।
- ‘वैल्यू फॉर मनी’ प्रणाली की भी अपनी सीमाएं हैं। प्रायोगिक आंकड़ों की कमी के कारण इसके परिमाणात्मक परिणामों का प्रभाव कम ही देखा जाता है। यही कारण है कि सरकार ने गुणवत्ता को भी आधार बनाया है।
- सन् 2000 में लंदन की भूमिगत रेल की मरम्मत और रखरखाव का काम पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को दिया गया था, जो बुरी तरह से असफल हो गया।
भारत के संदर्भ में किसी परियोजना की जरूरत एवं परिस्थितियों के आधार पर उसमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का निर्णय किया जाता है। किसी योजना में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का जबरन थोपा जाना उसकी विफलता का कारण तो बनता ही है, इससे करदाताओं का धन भी व्यर्थ चला जाता है। अतः इस व्यवस्था को सोच-समझकर लागू किए जाने से यह सार्थक सिद्ध हो सकती है।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित वरूण हल्लीकरी के लेख पर आधारित।