दमित वर्ग को आर्थिक अपंगता देता जातिवाद
Date:10-11-17
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स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद जातिवाद की काली छाया भारत को आज भी ढंके हुए है। उद्योगों से लेकर खेतों तक जातिवाद के नाम पर अनेक ऐसी धारणाएं एवं प्रवृत्तियां चली आ रही हैं, जो आज भी दमित-शोषित वर्ग को आर्थिक रूप से पंगु बना रही हैं।
निजी क्षेत्र की स्थिति
निजी क्षेत्र में आज भी समाज के वंचितों के लिए किसी प्रकार के आरक्षण की सुविधा नहीं है। कुछ एक अपवाद को छोड़कर ज्यादातर निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों पर उच्च वर्गों का दबदबा कायम है।
सन् 2012 में यूनिवर्सिटी ऑफ नदर्न ब्रिटिश कालंबिया के कुछ शोधकर्ताओं ने भारत में जाति एवं कार्पोरेट के बीच के संबंध पर लेख प्रकाशित किया था। इसमें उन्होंने ऊपर की 1,000 कंपनियों का अध्ययन किया और यह पाया कि 92.7 प्रतिशत कार्पोरेट बोर्ड के सदस्यों में 46 प्रतिशत वैश्य एवं 44.6 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। इसको जांचने के लिए उन्होंने ब्लॉउ इंडेक्स (Blau index) का सहारा लिया। उन्होंने पाया कि 70 प्रतिशत कंपनियों का बोर्ड उच्च जातियों के अधीन है।
कृषि क्षेत्र की स्थिति
इसी वर्ष हैदराबाद के समाज विकास परिषद् के शंकर राव ने कृषि क्षेत्र में जाति के प्रभाव पर एक पत्र प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के सर्वेक्षण का हवाला देते हुए बताया है कि नीची जाति के लोगों को अपनी ऊपज का कम मूल्य मिलता है। उच्च जातियों की तुलना में उनकी उत्पादकता भी कम है एवं उन्हें ऊँचा ब्याज लेने वाले महाजनों की गिरफ्त में रहना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर अगर खरीफ फसल की बात करें, तो एक अनुसूचित जाति के परिवार को अपनी प्रति हेक्टेयर फसल का 30,000 रुपये मिलता है, जबकि उच्च वर्ग के लिए यही 54,300 रुपये प्रति हेक्टेयर होता है।
सरकार की अनेक कोशिशों के बाद भी दलितों के प्रति अत्याचार हर रूप् में जारी है। हाल ही में एक दलित विद्वान कांचा इलाइयाह ने इन अत्याचारों का खुलासा करते हुए एक पुस्तक लिखी है। उन्होंने बताया है कि हिन्दू धर्म कितना रूढ़िवादी है और किस प्रकार से वह सामाजिक न्याय एवं उसके प्रभावों के प्रति आँख मूंदे हुए है। काश, 2100 साल पहले लिखे जातिवादी, शोषक एवं स्त्री जाति से द्वेष रखने वाले ग्रंथ “मनुस्मृति“ ने हमारे पूर्वजों को विवेकपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का पाठ पढ़ाया होता।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अभीक बर्मन के लेख पर आधारित।