गठबंधन सरकार की महिमा

Afeias
03 Jun 2019
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Date:03-06-19

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हाल ही में निपटे चुनावी महासमगर के सात चरणों में जनता ने बढ़-चढ़कर मतदान किया। मतदान के पीछे लोगों को अपने वैधानिक, संवैधानिक और मौलिक अधिकार का उपयोग करने का उत्साह होता है, और वर्ग, जाति व धर्म से ऊपर उठकर समानता, सभी के लिए सम्मान, न्याय के समक्ष समानता, आर्थिक और सामाजिक विकास की उम्मीद भी होती है। इस सूची में व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सुरक्षा भी शामिल है।

क्या आज कोई भी ऐसा राजनीतिक दल है, जो जनता की इन उम्मीदों की पूर्ति की गारंटी दे सकता है ? सच्चाई तो यह है कि अगर सत्ता में आने वाला कोई भी राजनीतिक दल अपने 5% वायदों को भी पूरा कर दे, तो देश की कायापलट हो सकती है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। अतः भारत जैसे जटिल राष्ट्र के लिए गठबंधन सरकार ही सर्वोत्तम लगती है।

आज की विषैली राजनीति, नारेबाजी, झूठे समाचारों और चाटुकारिता में डूबे टेलीविजन एंकर के संसार में ‘खिचड़ी’ सरकार को ही राष्ट्रीय पकवान कह दिया जाना गलत नहीं होगा।

हालांकि 1977 की विजय के बाद जनता पार्टी की गठबंधन सरकार, आंतरिक मतभेदों की वजह से अधिक समय नहीं चल पाई थी, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आगे भी गठबंधन को सफलता नहीं मिली या नहीं मिल सकती। ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी बहुमत वाली सरकार के विकल्प की जब भी बात आई, तो बदले में कोई एक दल बहुमत नहीं ले पाया, और गठबंधन सरकार ही बनी। अतः यह चाहे अच्छी लगे या बुरी, गठबंधन सरकार तो बनती ही रहेंगी। राजनीतिक पटल पर ये अपना आकर्षक रूप भी दिखाती रहेंगी।

वर्तमान में होने वाले गठबंधन 1970 और 80 के दशक जैसे नहीं हैं, जब राजनीतिक पार्टियां किसी एक विशेष पार्टी के विरोध में एकजुट होकर बनाती थीं। आज भी जब ये पार्टियां दुश्मन के दुश्मन को अपना दोस्त मानते हुए आपास में समझौते कर रही हैं, इनके बीच कुछ समान एजेंडा और लक्ष्य और होने चाहिए।

गठबंधन और संधियों में बड़े और छोटे समुदायों अल्पसंख्यकों और दबे हुए वर्ग की सामाजिक गतिशीलता के प्रति सम्मान का भाव दिखाई देना चाहिए।

हमने कुछ समय पहले तक भी भाजपा और अन्य दलों के गठबंधन को देखा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, मेघालय और मणिपुर आदि राज्यों में इनकी गठबंधन सरकारों ने अच्छा प्रदर्शन किया है। इसका कारण यही है कि इन दलों को एक-दूसरे से तालमेल बैठाने का लंबा अनुभव है।

गठबंधन सरकार का एक और सफल उदाहरण बिहार है।

पिछले दिसंबर में होने वाले चुनावों ने यह प्रमाणित कर दिया कि विपक्ष को सरकार बनाते देर नहीं लगती है। राज्य विधानसभाओं में एक बड़े विपक्षी दल का नियम सा बन गया है, जो मौका मिलते ही सत्तासीन दल का स्थान ले लेता है।

अगर राजनीति को हम समझौते की कला मानते हैं, तो गठबंधन की राजनीति कार्यात्मक स्वयत्तता का एक जुगाड़ है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संजय हजारिका के लेख पर आधारित। 14 मई, 2019